‘सनक: यूपी के सीरियल किलर’ में आज ऐसे किलर की कहानी, जिसे कत्ल करने के बाद ही चैन की नींद आती थी। उसका निशाना इतना पक्का था कि एक ही गोली में शिकार की खोपड़ी खोल देता था। 9 जून 2001, शनिवार की रात थी। रायबरेली में फुरसतगंज ब्लॉक का सैमसी गांव गहरी नींद में डूबा था। कहीं आंगन में चारपाई पर खर्राटे गूंज रहे थे, कहीं छतों पर बच्चे चादरों में लिपटे सो रहे थे। इसी सन्नाटे के बीच जगदीश प्रसाद अपनी आटा चक्की में अकेले सो रहे थे। घड़ी रात के एक बजा रही थी। अचानक एक धमाका हुआ- ‘धांय…!’ जगदीश के मुंह से आवाज तक नहीं निकली। सुबह हुई। मुर्गे की बांग, दूधवालों की साइकिलें, खेतों को जाती पगडंडियों पर हल्की चहलकदमी होने लगी। रोज छह बजे जगदीश उठ जाते थे। उस दिन उनकी चक्की के दरवाजे नहीं खुले। तभी गांव के एक व्यक्ति ने किवाड़ खटखटाया। किवाड़ पूरा खुल गया। अंदर का सीन देखकर उसकी सांसें अटक गई। बाद में हिम्मत जुटाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा- “जगदीश मर गया… जगदीश मर गया… खून… खून हो गया!” ये सुनते ही लोग दौड़ पड़े। भीतर का नजारा देखकर सबके होश उड़ गए। लोग बातें करने लगे… “हे भगवान… पीछे से गोली मारी है… देखो सिर फटा पड़ा है।” कोई बोला- “कल रात तो हंसी-मजाक कर रहे थे… ये क्या हो गया!” जगदीश की पत्नी और छोटा भाई राजेश कुमार चक्की में घुसे। राजेश लाश देखकर चीख पड़ा। भैया…भैया… कहते हुए उसकी आंखों से आंसू बह निकले। पत्नी के हाथ से पल्लू छूट गया। खून के कारण बिस्तर पर मक्खियां भिनभिनाने रही थीं। थाने में खबर की गई। कुछ ही देर में दरोगा अपनी टीम के साथ आ गया। नोटबुक खोली। दरोगा ने पूछा- “किसने देखा?”
एक बुजुर्ग बोला- “कोई नहीं दरोगा जी, सुबह पता चला।”
राजेश ने कहा- “वो अकेले ही चक्की में सोते थे।” दरोगा ने कलम चलाई, अज्ञात के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया। शव थाने ले जाया गया। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आई- भरवा बंदूक की गोली थी, नजदीक से दागी गई थी। खोपड़ी के पीछे का हिस्सा फटा था, नाक और मुंह से खून रिस चुका था। मगर उसके आगे कुछ पता नहीं चला। कुछ महीनों तक गांव में पुलिस आती, पूछताछ करती, रजिस्टर में तारीख, समय और दो लाइनें भरती, फिर चली जाती। समय गुजरा। एक साल के भीतर तीन-चार और हत्याएं हो गईं। मर्डर का सिलसिला दूसरे पास के गांवों में भी शुरू हो चुका था। हर बार तरीका वही… रात, नींद और अचानक गोली चलती। लोग कहते- “धांय से आवाज आती है… और फिर अंधेरे में दो परछाइयां भागती दिखती हैं। एक लंबा, एक छोटा। चेहरा ढंका हुआ, कभी काले कपड़े से, कभी बुर्के जैसे किसी कपड़े से।” किसी के पास ये जवाब नहीं था कि वे चेहरे हैं कैसे, सिर्फ कदमों की आहट थी, जो खेतों की मेड़ पर जाकर गायब हो जाती थी। फुरसतगंज के सैमसी, सरवन, बाबू का पुरवा, ब्रह्मनी, हिंदू का पुरवा, रामदयाल का पुरवा, बादे का पुरवा, तरौना, किशुनपुर केवई, नया पुरवा, रामपुर जमालपुर, नहरकोठी गांवों में लगातार वारदातें हो रही थीं। किसी को पता नहीं था कि रात के अंधेरे में कौन हत्याएं कर रहा है। लोगों ने घरों के बाहर सोना बंद कर दिया था। रात 8 बजे के बाद घरों के दरवाजे बंद हो जाते थे। बुजुर्गों की हालत ये हो गई थी कि उन्हें शाम ढलने के बाद शौच जाना हो तो वे छत पर ही निपटते थे। समस्या के निदान के लिए बीच-बीच में सभी गांवों में चौपालें लगने लगीं। कोई कहता- “ये सब जमीन-जायदाद की रंजिश है।” दूसरा काट देता- “नहीं, बच्चों की लड़ाई से शुरू हुआ था।” महीने और साल बदलते रहे, लेकिन सीरियल किलर का खौफ कायम था। जगदीश की तरह कई और लोग घर के बाहर या चबूतरे पर सोते हुए मारे गए थे। थाना फुरसतगंज के गांवों में यह सिलसिला वर्षों से चल रहा था। कुछ मामले इतने वीभत्स थे कि आईजी और डीआईजी तक को मौके पर आना पड़ा। 2003 में ऐसे ही एक केस की जिम्मेदारी असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस (ASP) वीपी श्रीवास्तव को सौंपी गई, जो बाद में SSP रैंक से रिटायर्ड हुए। वीपी श्रीवास्तव ने पुरानी फाइलें निकालीं। धूल से अटी फाइलों के पन्ने उलटे और कड़ियां जोड़ना शुरू कीं। तारीखें एक कतार में खड़ी होने लगीं। 1998, 1999, 2000, 2001, 2002… हर दो-तीन महीने में खून की एक लकीर। नक्शे पर पिन लगाए, रायबरेली-सुल्तानपुर रोड से सटे पांच-छह गांव में ज्यादा आतंक था। गिनती करीब 35 मर्डर पर खत्म हुई। पैटर्न सामने आया। हर बार घर के बाहर सोते किसी मर्द पर वार किया जाता है, उम्र 50 से 70 के बीच। ज्यादातर लोग एक ही जाति के हैं। मरने वाले ऐसे थे, जिनकी कोई घोषित जानलेवा दुश्मनी नहीं थी। सब शनिवार, रविवार या सोमवार को ही मारे गए थे। हर बार सिर के पास चलती और एक ही गोली से खेल खत्म। पीएम रिपोर्ट बता रही थी कि हत्यारा जो बंदूक इस्तेमाल कर रहा है वो पुराने जमाने की भरवा बंदूक है, जिसे नली में बारूद भरकर दागा जाता है। इतने फैक्ट एक जगह जमा हुए ASP ने कहा, ये तो कोई सीरियल किलर है। अब पुलिस के सामने एक नहीं, दो चुनौतियां थीं- कातिल को पकड़ना और तब तक हत्याएं रोकना। हर बार पुलिस हत्या के बाद पहुंचती थी। अब कई टीमें एक साथ तैनात की गईं। रिस्पॉन्स टाइम घटाने के लिए एक प्राइमरी स्कूल में अस्थायी चौकी बनाई। पेट्रोलिंग बढ़ा दी। शनिवार, रविवार और सोमवार को 7-8 थानों की फोर्स एक साथ लगती। सिपाहियों के हाथ में ड्रैगन लाइटें थीं, जो दूर तक अंधेरा चीर देती थीं। बाइक स्क्वॉड गलियों और मेढ़ों पर रेंगने लगे। गांववाले भी भाला-बल्लम लेकर पहरे पर बैठ गए। एक हफ्ता, दो हफ्ते, एक महीना- घटनाएं थमीं। एएसपी श्रीवास्तव बताते हैं कि मर्डर की आदत भी एक किस्म का नशा होती है- जितनी देर रोको, उतनी बेचैनी बढ़ती है। शायद उसी बेचैनी में सीरियल किलर ने रिस्क लिया। 8 नवंबर 2004, शाम के करीब 7 बजे होंगे। गांव की गलियों में धुंधले बल्बों की पीली रोशनी थी। विश्राम साहू अपने घर के बाहर अलाव ताप रहे थे। पड़ोस के दो-तीन आदमी भी वहीं बैठे थे। कोई बेंत के नोंक से आग कुरेद रहा था। अचानक एक फायर हुआ। न पास से, न बहुत दूर से… ठीक इतना कि दहशत एकदम जकड़ ले। विश्राम की छाती में आग की लकीर जली और वहीं निढाल हो गए। किसी ने चिल्लाकर इशारा किया, वो उधर भाग रहा है… वो सफेद कपड़े वाला! दो लोग लपके। हत्यारा खेतों से दौड़ते हुए, नहर की तरफ भागा। कुछ ही देर में पानी में कूदने की आवाज आई- “छपाक!” गांववाले नहर की तरफ भागे। लाइटें टिमटिमाईं। पानी की सतह पर कुछ लहरें थीं, फिर सन्नाटा। तब-तक पुलिस भी पहुंच गई थी। मौके का मुआयना हुआ। गीली मिट्टी में उधड़े निशान, बिखरे पत्ते और पहली बार एक ठोस सुराग मिला। घास में एक जूता पड़ा था। वीपी श्रीवास्तव ने जूते को उठाया कहा, यह उसी का है। अब वह हमारी पहुंच के भीतर है। पूछताछ तेज हुई। पुलिस ने एक-एक घर पर दस्तक दी। सबसे पूछा- “हत्या के वक्त तुम कहां थे?” “किससे मिलने गए थे?” पहरा और सख्त हुआ। दबिश बढ़ी। 7 दिन बीते और दूसरा हफ्ता शुरू हुआ। कातिल हर बार की तरह पुलिस से एक कदम आगे लगा, शायद इस बार वह फिसल गया था। पूछताछ के दौरान गांव के एक आदमी ने सुराग दिया-
“हत्या वाली रात हमने अपने पड़ोसी सदाशिव साहू को घर में घुसते देखा था। उसके कपड़े भी गीले थे।” नाम का वजन जोड़ा गया- सदाशिव साहू, उम्र 57 साल, फुरसतगंज मार्केट में कपड़े की दुकान। लोग बोले- “भला आदमी है। पूजा-पाठ करता है। अपने काम से काम रखता है। घर से दुकान, दुकान से घर। ज्यादा बात नहीं करता। कोई हाल पूछ ले तो सिर हिला देता है।” एक बात खटकने लगी। कुछ साल पहले उसकी पत्नी अचानक गायब हो गई थी। किसी को उसके बारे में कुछ पता नहीं चला। एक-दो रिश्तेदारों ने पूछा तो सदाशिव ने झिड़क दिया- “अपने काम से मतलब रखो।” ASP के दिमाग में घंटी बजी। सदाशिव को थाने बुलाया गया। सवालों से उसकी आंखों की पुतलियां एकदम फैलतीं, फिर सिकुड़ जातीं। शक गहराया तो उसके घर की तलाशी हुई। अलमारी से नकली दाढ़ी-मूछें निकलीं, नाटक में पहने जाने वाले कपड़े, जो अब भी पसीने की गंध छोड़ रहे थे। लाइसेंसी बंदूक जो पूरी चोक थी, जैसे पानी में देर तक डुबोया गया हो। लोहे के अंदर की नमी बता रही थी कि असलहा सुखाया गया है। इतना काफी था। थाने की कुर्सी पर पूछताछ शुरू हुई। दोपहर ढली। शाम हुई। रात की पहली नींद गांव पर उतरी और थाने की ट्यूबलाइट में सदाशिव की पुतलियां ठहर गईं। ASP ने सदाशिव की आंखों में आंखें डालकर पूछा- “कितने?” सदाशिव की आवाज एकदम धीमी थी- “हम… हमें खून देखने की हूक उठती है।”
ASP ने बात नहीं काटी- “कितने…?”
सदाशिव के होंठ कांपे- “बाइस…” कमरा कुछ पल को जड़ हो गया। सदाशिव आगे बताने लगा-
“महीने-दो महीने में किसी को मार नहीं देते तो रात में नींद नहीं आती है। अजीब टाइप की बेचैनी होती। खून की बूंदें जमीन पर गिरती देख लेते तभी सुकून मिलता। मर्डर के बाद ही चैन से सो पाते थे।” पूछताछ में एक और परत खुली, उसका बेटा जयकरन। जयकरन ने बताया-
“बाबू कभी-कभी रात में गायब हो जाते थे। हम पूछते तो कुछ बताते नहीं। जिस रात ये बाहर जाते, उसी रात कत्ल हो जाता। जब हमें पता चला तो बोले- ये बात किसी को बताई तो तुम्हें भी मार देंगे। फिर हमें भी साथ ले जाने लगे। गोली मारने के बाद लौट आते थे।” ASP ने कागज पर तारीखें, नाम, गांव, उम्र, सब एक ग्रिड में लिख लिया। कई खोई हुई रातें एक पट्टी में सिमट आईं। कहानी थाने से प्रेस तक पहुंची। पुलिस लाइन में प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी गई। केस इतना बड़ा था कि लखनऊ और दिल्ली से भी कैमरेवाले पहुंच गए। हॉल छोटा पड़ गया, सो परेड ग्राउंड में माइक लगाए गए। जिले के पुलिस कप्तान संजय श्रीवास्तव ने टीम के साथ सदाशिव को सामने खड़ा किया। फुसफुसाहट की लहर चली। सवाल दागे गए। ASP ने आठ पेज का कुबूलनामा पढ़ना शुरू किया। सदाशिव कुछ देर चुप रहा, फिर अचानक चीख पड़ा-
“सब झूठ है… हमें फंसाया जा रहा है… पुलिस ने जबरदस्ती बयान दिलाया है!” पंडाल में अफरा-तफरी मच गई। कैमरे एक साथ उसकी तरफ घूम गए। पुलिसवाले उसे पकड़कर भीतर ले गए। कप्तान ने माइक थामा-
“अपराधी तो हमेशा यही कहता है कि उसने अपराध नहीं किया। हमारा टेस्ट इससे होगा कि अब आगे इस तरह की कोई घटना नहीं होगी।” और जैसे किसी ने घड़ी की टिक-टिक बंद कर दी हो। हत्याएं रुक गईं, क्योंकि सीरियल किलर सदाशिव साहू जेल में था। अब कागजी लड़ाई शुरू हुई। पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की। अदालत के सामने सबूत रखे गए। बरामद असलहा, नकली दाढ़ी-मूछ, कपड़े, गवाह, घटनास्थलों का मिलान, तारीखें, पैटर्न। कोर्ट में सजा दिलाना एक और पहाड़ था। कुछ मामलों में गवाह मुकर गए, कुछ में कड़ियां ढीली पड़ीं, कुछ में बेनीफिट ऑफ डाउट। कहीं जमानत मिल गई, कहीं बरी। फाइलें मोटी होती गईं, तारीखें बढ़ती गईं। अठारह साल बीत गए। पूर्व आईजी राजेश कुमार पांडे के अनुसार 22 अप्रैल, 2022 को आखिरकार दो अलग-अलग मामलों में जिला अदालत ने फैसला सुनाया था। इसमें सदाशिव साहू को उम्रकैद हुई। कई मामलों में सुनवाई जारी रही। उसी दौरान 2023 में अमेठी जेल में सजा काटते हुए सदाशिव की मौत हो गई। एक खबर की तरह आई और चली गई। एक पंक्ति, एक तारीख, एक अंत। बेटे को सबूतों की कमी के कारण बरी कर दिया गया। **** नोट- 2010 से फुरसतगंज ब्लॉक रायबरेली के बजाय अमेठी जिले का हिस्सा है। (यह रियल स्टोरी पुलिस चार्जशीट, केस से जुड़े पुलिस ऑफिसर और स्थानीय लोगों से बातचीत पर आधारित है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी का इस्तेमाल किया गया है। हमने सदाशिव के बेटे से उनका पक्ष लेना चाहा, लेकिन उन्होंने हर बार बात करने से इनकार कर दिया।)
एक बुजुर्ग बोला- “कोई नहीं दरोगा जी, सुबह पता चला।”
राजेश ने कहा- “वो अकेले ही चक्की में सोते थे।” दरोगा ने कलम चलाई, अज्ञात के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया। शव थाने ले जाया गया। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आई- भरवा बंदूक की गोली थी, नजदीक से दागी गई थी। खोपड़ी के पीछे का हिस्सा फटा था, नाक और मुंह से खून रिस चुका था। मगर उसके आगे कुछ पता नहीं चला। कुछ महीनों तक गांव में पुलिस आती, पूछताछ करती, रजिस्टर में तारीख, समय और दो लाइनें भरती, फिर चली जाती। समय गुजरा। एक साल के भीतर तीन-चार और हत्याएं हो गईं। मर्डर का सिलसिला दूसरे पास के गांवों में भी शुरू हो चुका था। हर बार तरीका वही… रात, नींद और अचानक गोली चलती। लोग कहते- “धांय से आवाज आती है… और फिर अंधेरे में दो परछाइयां भागती दिखती हैं। एक लंबा, एक छोटा। चेहरा ढंका हुआ, कभी काले कपड़े से, कभी बुर्के जैसे किसी कपड़े से।” किसी के पास ये जवाब नहीं था कि वे चेहरे हैं कैसे, सिर्फ कदमों की आहट थी, जो खेतों की मेड़ पर जाकर गायब हो जाती थी। फुरसतगंज के सैमसी, सरवन, बाबू का पुरवा, ब्रह्मनी, हिंदू का पुरवा, रामदयाल का पुरवा, बादे का पुरवा, तरौना, किशुनपुर केवई, नया पुरवा, रामपुर जमालपुर, नहरकोठी गांवों में लगातार वारदातें हो रही थीं। किसी को पता नहीं था कि रात के अंधेरे में कौन हत्याएं कर रहा है। लोगों ने घरों के बाहर सोना बंद कर दिया था। रात 8 बजे के बाद घरों के दरवाजे बंद हो जाते थे। बुजुर्गों की हालत ये हो गई थी कि उन्हें शाम ढलने के बाद शौच जाना हो तो वे छत पर ही निपटते थे। समस्या के निदान के लिए बीच-बीच में सभी गांवों में चौपालें लगने लगीं। कोई कहता- “ये सब जमीन-जायदाद की रंजिश है।” दूसरा काट देता- “नहीं, बच्चों की लड़ाई से शुरू हुआ था।” महीने और साल बदलते रहे, लेकिन सीरियल किलर का खौफ कायम था। जगदीश की तरह कई और लोग घर के बाहर या चबूतरे पर सोते हुए मारे गए थे। थाना फुरसतगंज के गांवों में यह सिलसिला वर्षों से चल रहा था। कुछ मामले इतने वीभत्स थे कि आईजी और डीआईजी तक को मौके पर आना पड़ा। 2003 में ऐसे ही एक केस की जिम्मेदारी असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस (ASP) वीपी श्रीवास्तव को सौंपी गई, जो बाद में SSP रैंक से रिटायर्ड हुए। वीपी श्रीवास्तव ने पुरानी फाइलें निकालीं। धूल से अटी फाइलों के पन्ने उलटे और कड़ियां जोड़ना शुरू कीं। तारीखें एक कतार में खड़ी होने लगीं। 1998, 1999, 2000, 2001, 2002… हर दो-तीन महीने में खून की एक लकीर। नक्शे पर पिन लगाए, रायबरेली-सुल्तानपुर रोड से सटे पांच-छह गांव में ज्यादा आतंक था। गिनती करीब 35 मर्डर पर खत्म हुई। पैटर्न सामने आया। हर बार घर के बाहर सोते किसी मर्द पर वार किया जाता है, उम्र 50 से 70 के बीच। ज्यादातर लोग एक ही जाति के हैं। मरने वाले ऐसे थे, जिनकी कोई घोषित जानलेवा दुश्मनी नहीं थी। सब शनिवार, रविवार या सोमवार को ही मारे गए थे। हर बार सिर के पास चलती और एक ही गोली से खेल खत्म। पीएम रिपोर्ट बता रही थी कि हत्यारा जो बंदूक इस्तेमाल कर रहा है वो पुराने जमाने की भरवा बंदूक है, जिसे नली में बारूद भरकर दागा जाता है। इतने फैक्ट एक जगह जमा हुए ASP ने कहा, ये तो कोई सीरियल किलर है। अब पुलिस के सामने एक नहीं, दो चुनौतियां थीं- कातिल को पकड़ना और तब तक हत्याएं रोकना। हर बार पुलिस हत्या के बाद पहुंचती थी। अब कई टीमें एक साथ तैनात की गईं। रिस्पॉन्स टाइम घटाने के लिए एक प्राइमरी स्कूल में अस्थायी चौकी बनाई। पेट्रोलिंग बढ़ा दी। शनिवार, रविवार और सोमवार को 7-8 थानों की फोर्स एक साथ लगती। सिपाहियों के हाथ में ड्रैगन लाइटें थीं, जो दूर तक अंधेरा चीर देती थीं। बाइक स्क्वॉड गलियों और मेढ़ों पर रेंगने लगे। गांववाले भी भाला-बल्लम लेकर पहरे पर बैठ गए। एक हफ्ता, दो हफ्ते, एक महीना- घटनाएं थमीं। एएसपी श्रीवास्तव बताते हैं कि मर्डर की आदत भी एक किस्म का नशा होती है- जितनी देर रोको, उतनी बेचैनी बढ़ती है। शायद उसी बेचैनी में सीरियल किलर ने रिस्क लिया। 8 नवंबर 2004, शाम के करीब 7 बजे होंगे। गांव की गलियों में धुंधले बल्बों की पीली रोशनी थी। विश्राम साहू अपने घर के बाहर अलाव ताप रहे थे। पड़ोस के दो-तीन आदमी भी वहीं बैठे थे। कोई बेंत के नोंक से आग कुरेद रहा था। अचानक एक फायर हुआ। न पास से, न बहुत दूर से… ठीक इतना कि दहशत एकदम जकड़ ले। विश्राम की छाती में आग की लकीर जली और वहीं निढाल हो गए। किसी ने चिल्लाकर इशारा किया, वो उधर भाग रहा है… वो सफेद कपड़े वाला! दो लोग लपके। हत्यारा खेतों से दौड़ते हुए, नहर की तरफ भागा। कुछ ही देर में पानी में कूदने की आवाज आई- “छपाक!” गांववाले नहर की तरफ भागे। लाइटें टिमटिमाईं। पानी की सतह पर कुछ लहरें थीं, फिर सन्नाटा। तब-तक पुलिस भी पहुंच गई थी। मौके का मुआयना हुआ। गीली मिट्टी में उधड़े निशान, बिखरे पत्ते और पहली बार एक ठोस सुराग मिला। घास में एक जूता पड़ा था। वीपी श्रीवास्तव ने जूते को उठाया कहा, यह उसी का है। अब वह हमारी पहुंच के भीतर है। पूछताछ तेज हुई। पुलिस ने एक-एक घर पर दस्तक दी। सबसे पूछा- “हत्या के वक्त तुम कहां थे?” “किससे मिलने गए थे?” पहरा और सख्त हुआ। दबिश बढ़ी। 7 दिन बीते और दूसरा हफ्ता शुरू हुआ। कातिल हर बार की तरह पुलिस से एक कदम आगे लगा, शायद इस बार वह फिसल गया था। पूछताछ के दौरान गांव के एक आदमी ने सुराग दिया-
“हत्या वाली रात हमने अपने पड़ोसी सदाशिव साहू को घर में घुसते देखा था। उसके कपड़े भी गीले थे।” नाम का वजन जोड़ा गया- सदाशिव साहू, उम्र 57 साल, फुरसतगंज मार्केट में कपड़े की दुकान। लोग बोले- “भला आदमी है। पूजा-पाठ करता है। अपने काम से काम रखता है। घर से दुकान, दुकान से घर। ज्यादा बात नहीं करता। कोई हाल पूछ ले तो सिर हिला देता है।” एक बात खटकने लगी। कुछ साल पहले उसकी पत्नी अचानक गायब हो गई थी। किसी को उसके बारे में कुछ पता नहीं चला। एक-दो रिश्तेदारों ने पूछा तो सदाशिव ने झिड़क दिया- “अपने काम से मतलब रखो।” ASP के दिमाग में घंटी बजी। सदाशिव को थाने बुलाया गया। सवालों से उसकी आंखों की पुतलियां एकदम फैलतीं, फिर सिकुड़ जातीं। शक गहराया तो उसके घर की तलाशी हुई। अलमारी से नकली दाढ़ी-मूछें निकलीं, नाटक में पहने जाने वाले कपड़े, जो अब भी पसीने की गंध छोड़ रहे थे। लाइसेंसी बंदूक जो पूरी चोक थी, जैसे पानी में देर तक डुबोया गया हो। लोहे के अंदर की नमी बता रही थी कि असलहा सुखाया गया है। इतना काफी था। थाने की कुर्सी पर पूछताछ शुरू हुई। दोपहर ढली। शाम हुई। रात की पहली नींद गांव पर उतरी और थाने की ट्यूबलाइट में सदाशिव की पुतलियां ठहर गईं। ASP ने सदाशिव की आंखों में आंखें डालकर पूछा- “कितने?” सदाशिव की आवाज एकदम धीमी थी- “हम… हमें खून देखने की हूक उठती है।”
ASP ने बात नहीं काटी- “कितने…?”
सदाशिव के होंठ कांपे- “बाइस…” कमरा कुछ पल को जड़ हो गया। सदाशिव आगे बताने लगा-
“महीने-दो महीने में किसी को मार नहीं देते तो रात में नींद नहीं आती है। अजीब टाइप की बेचैनी होती। खून की बूंदें जमीन पर गिरती देख लेते तभी सुकून मिलता। मर्डर के बाद ही चैन से सो पाते थे।” पूछताछ में एक और परत खुली, उसका बेटा जयकरन। जयकरन ने बताया-
“बाबू कभी-कभी रात में गायब हो जाते थे। हम पूछते तो कुछ बताते नहीं। जिस रात ये बाहर जाते, उसी रात कत्ल हो जाता। जब हमें पता चला तो बोले- ये बात किसी को बताई तो तुम्हें भी मार देंगे। फिर हमें भी साथ ले जाने लगे। गोली मारने के बाद लौट आते थे।” ASP ने कागज पर तारीखें, नाम, गांव, उम्र, सब एक ग्रिड में लिख लिया। कई खोई हुई रातें एक पट्टी में सिमट आईं। कहानी थाने से प्रेस तक पहुंची। पुलिस लाइन में प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी गई। केस इतना बड़ा था कि लखनऊ और दिल्ली से भी कैमरेवाले पहुंच गए। हॉल छोटा पड़ गया, सो परेड ग्राउंड में माइक लगाए गए। जिले के पुलिस कप्तान संजय श्रीवास्तव ने टीम के साथ सदाशिव को सामने खड़ा किया। फुसफुसाहट की लहर चली। सवाल दागे गए। ASP ने आठ पेज का कुबूलनामा पढ़ना शुरू किया। सदाशिव कुछ देर चुप रहा, फिर अचानक चीख पड़ा-
“सब झूठ है… हमें फंसाया जा रहा है… पुलिस ने जबरदस्ती बयान दिलाया है!” पंडाल में अफरा-तफरी मच गई। कैमरे एक साथ उसकी तरफ घूम गए। पुलिसवाले उसे पकड़कर भीतर ले गए। कप्तान ने माइक थामा-
“अपराधी तो हमेशा यही कहता है कि उसने अपराध नहीं किया। हमारा टेस्ट इससे होगा कि अब आगे इस तरह की कोई घटना नहीं होगी।” और जैसे किसी ने घड़ी की टिक-टिक बंद कर दी हो। हत्याएं रुक गईं, क्योंकि सीरियल किलर सदाशिव साहू जेल में था। अब कागजी लड़ाई शुरू हुई। पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की। अदालत के सामने सबूत रखे गए। बरामद असलहा, नकली दाढ़ी-मूछ, कपड़े, गवाह, घटनास्थलों का मिलान, तारीखें, पैटर्न। कोर्ट में सजा दिलाना एक और पहाड़ था। कुछ मामलों में गवाह मुकर गए, कुछ में कड़ियां ढीली पड़ीं, कुछ में बेनीफिट ऑफ डाउट। कहीं जमानत मिल गई, कहीं बरी। फाइलें मोटी होती गईं, तारीखें बढ़ती गईं। अठारह साल बीत गए। पूर्व आईजी राजेश कुमार पांडे के अनुसार 22 अप्रैल, 2022 को आखिरकार दो अलग-अलग मामलों में जिला अदालत ने फैसला सुनाया था। इसमें सदाशिव साहू को उम्रकैद हुई। कई मामलों में सुनवाई जारी रही। उसी दौरान 2023 में अमेठी जेल में सजा काटते हुए सदाशिव की मौत हो गई। एक खबर की तरह आई और चली गई। एक पंक्ति, एक तारीख, एक अंत। बेटे को सबूतों की कमी के कारण बरी कर दिया गया। **** नोट- 2010 से फुरसतगंज ब्लॉक रायबरेली के बजाय अमेठी जिले का हिस्सा है। (यह रियल स्टोरी पुलिस चार्जशीट, केस से जुड़े पुलिस ऑफिसर और स्थानीय लोगों से बातचीत पर आधारित है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी का इस्तेमाल किया गया है। हमने सदाशिव के बेटे से उनका पक्ष लेना चाहा, लेकिन उन्होंने हर बार बात करने से इनकार कर दिया।)