जिंदगी जितनी आसान दिखती है, उतनी है नहीं। वो अपने साथ बहुत से उतार-चढ़ाव लेकर चलती है। इस सफर में कुछ लोग हार जाते हैं, कुछ अपना रास्ता बना लेते हैं। ऐसी ही कहानी मेरी भी है। नमस्कार, मैं सूरज सिंह… बनारस के घाटों का एक स्केच आर्टिस्ट। मेरी जिंदगी कैनवास पर उतरने वाले इंद्रधनुषी रंगों जैसी नहीं थी। ये उदास ब्लैक एंड वाइट सिनेमा जैसी थी। लेकिन, न तो मैंने अपने हुनर का दामन छोड़ा और न ही हुनर ने मुझे। प्रयागराज का रहने वाला हूं, लेकिन 3 साल से बनारस में रह रहा हूं। बचपन से मुझे ड्रॉइंग का शौक था। ये शौक मेरी बहन की देन है। वो अक्सर घर के किसी कोने में बैठकर कुछ-कुछ बनाती थी। कभी फूल, कभी घर, कभी कोई चेहरा। मैं उसे ये सब करते देखता रहता था। मुझे लगता था कि पेंसिल में कोई जादू है। एक सफेद कागज पर अचानक पूरी दुनिया उतर आती थी। एक दिन मैंने भी दीदी की पेंसिल उठाई और कागज पर कुछ बनाया। अब याद नहीं क्या बनाया था, लेकिन ड्रॉइंग पूरी होते ही सबसे पहले दौड़कर बहन के पास गया। “दीदी-दीदी, देखो मैंने ये क्या बनाया है।” बहन ने वो ड्रॉइंग देखी। कुछ पल चुप रही। फिर आंखें सिकोड़कर बोली- “ये बनाना तुम्हारा नहीं, हम लड़कियों का काम है।” दीदी की वो बात मुझे समझ में नहीं आई। सच कहूं तो आज-तक समझ नहीं आई- “क्या कला भी लड़के-लड़की का भेद करती है?” दीदी के बाद मैं वो पेज लेकर सीधे मम्मी-पापा के पास गया। मां ने मेरी ड्रॉइंग देखी और मुस्कुरा कर बोलीं- “अच्छा बनाया है।” पापा ने कुछ कहना तो दूर, ड्रॉइंग की तरफ देखा तक नहीं। मुझे ड्रॉइंग और स्केचिंग बेहद पसंद थी। स्कूल में जब भी ड्रॉइंग कॉम्पटीशन होता तो मैं जरूर हिस्सा लेता था। टीचर मेरी खूब तारीफ करते थे। दोस्त मेरी ड्रॉइंग देखकर कहते- “काश हम भी इतनी अच्छी ड्रॉइंग कर पाते।” लेकिन घर का माहौल बिल्कुल अलग था। मैं मिडिल क्लास फैमिली से हूं। पापा किसान हैं। सुबह खेत, दोपहर धूप और शाम को थकान यही उनकी दुनिया है। हमारी फैमिली में कुछ लोग भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री से भी जुड़े हैं। इसलिए पापा का कहना साफ था- या तो उनके साथ खेती संभालूं या फिर कैमरे की चमक के बीच कोई ‘नाम वाला’ काम करूं। मेरा मन न खेतों में लगता था और न स्क्रीन की चकाचौंध मुझे खींचती। मुझे पसंद था कागज, पेंसिल और वो खाली जगह, जहां मैं अपनी दुनिया बना सकता था। स्केच बनाना मेरे लिए शौक नहीं, सांस लेने जैसा था। पापा को ये बात कभी समझ नहीं आई। वो हमेशा कहते- “स्केच बनाकर जिंदगी नहीं चलती। ये फालतू का काम है।” मैं सोचता था, वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। वक्त के साथ बातें कम नहीं, और तीखी होती गईं। अब रिश्तेदार भी मौका नहीं छोड़ते थे। शादी-पार्टी में मेरा मजाक उड़ाते- “अरे, ये लड़के की बॉडी में लड़की है। पेंसिल लेकर ड्रॉइंग बनाता है।” फिर इतने जोर के ठहाके लगाते कि मेरे कान जलने लगते। मैं मुस्कुराने की कोशिश करता, लेकिन मन भर आता था। धीरे-धीरे मैं लोगों से कटने लगा। जब ताने बढ़ जाते, मैं चुपचाप वहां से हट जाता। घर आकर कमरे में रोता रहता। कोई आवाज नहीं, कोई शिकायत नहीं, बस आंसू और सवाल- “क्या सच में ड्रॉइंग लड़कियों का काम है? लेकिन ये मुझे सुकून देता है… क्या ये मेरी गलती है?” एक दिन पापा ने साफ शब्दों में कह दिया- “अब से ड्रॉइंग-स्केचिंग नहीं करनी है।” उनकी आवाज में गुस्सा था और शायद डर भी। उनका बेटा उस रास्ते पर चल रहा, जिसे समाज ‘काम’ नहीं मानता। मैंने भी सिर झुका लिया, हामी भर दी, लेकिन दिल नहीं माना। दिल का काम ही नहीं, अपनी पसंद को भुला देना। उस दिन के बाद मैं चोरी-छुपे ड्रॉइंग करने लगा। रात में जब सब सो जाते, मैं टेबल लैंप जलाकर स्केचिंग करता। कभी मां का चेहरा बनाता, कभी खेत में खड़े पापा की तस्वीर, कभी अपना ही अधूरा-सा स्केच। हर लकीर के साथ मन थोड़ा हल्का हो जाता था। उसी से मुझे चैन मिलता था। मैं जानता था, अगर पकड़ा गया तो डांट पड़ेगी, मार भी पड़ सकती है। ये भी जानता था कि अगर मैंने ये छोड़ दिया, तो मैं खुद को खो दूंगा। एक दिन मेरी दुनिया सच में हिल गई। जिस डर से मैं रोज भागता था, वही सामने आकर खड़ा हो गया। मैं कमरे में बैठा स्केच बना रहा था। पेंसिल कागज पर फिसल रही थी, मन की उलझनें धीरे-धीरे उतर रही हों। तभी जोर से दरवाजा खुला, पापा थे। उनकी आंखों में गुस्सा नहीं, आग थी। शायद किसी ने बता दिया था या उन्होंने खुद ही देख लिया था। “अब भी ये सब कर रहा है?” गुस्से से उनकी आवाज कांप रही थी। मैं कुछ बोल नहीं पाया। मेरे हाथ से पेंसिल छूट गई। पापा ने एक-एक करके मेरी कॉपियां उठाईं और इधर-उधर फेंकनी शुरू कर दीं। अधूरे चेहरे, अधूरे सपने सब फर्श पर बिखरे पड़े थे। मेरी दुनिया जैसे टुकड़ों में बिखर रही थी। मैंने आगे बढ़कर कहना चाहा- “पापा, बस यही तो है जो मुझे अच्छा लगता है…” कुछ कह पाता, उससे पहले ही एक थप्पड़ पड़ा… तड़ा ऽ ऽ ऽ क। फिर दूसरा, तीसरा…। मेरे कानों में सीटी बजने लगी। मैं चुप था, रो भी नहीं पा रहा था। उस मार से ज्यादा दर्द इस बात का था कि पापा ने एक बार भी नहीं पूछा कि उनके मना करने के बावजूद मैं स्केचिंग क्यों कर रहा था। कुछ देर यूं ही खड़ा रहा, बिल्कुल चुप। जैसे शरीर वहीं था, लेकिन मन कहीं और चला गया था। “इससे पहले पापा ने मुझे कभी ऐसे नहीं मारा था।” मैं समझ रहा था कि वो मेरा बुरा नहीं चाहते। उन्हें डर था… समाज का, नाक का, उस ‘अच्छी जिंदगी’ का जिसे वो मेरे लिए देख रहे थे। उस दिन पहली बार मुझे एहसास हुआ कि प्यार और समझ के बीच कितना बड़ा फासला हो सकता है। पापा कमरे से चले गए। दरवाजा जोर से बंद हुआ। मैं फर्श पर बैठ गया। चारों तरफ फैले कागजों को देखने लगा। किसी स्केच पर पापा का चेहरा था, कहीं खेत, फूल और हमारा घर। उस रात मैं रोया नहीं। आंसू जैसे सूख चुके थे। साल 2022, मेरी जिंदगी में वो साल उम्मीद और टूटन दोनों साथ लेकर आया। मैंने प्रयागराज के ही एक सरकारी कॉलेज पढ़ रहा था। उस समय 11वीं में था। कॉलेज की एक छोटी-सी नोटिस ने मेरे भीतर कुछ जगा दिया। तमिलनाडु में नेशनल लेवल का ड्रॉइंग कॉम्पटीशन होने वाला था। आजादी के 75 साल पूरे होने पर नेशनल फ्लैग को लेकर कुछ इनोवेटिव ड्रॉइंग करनी थी। मैंने किसी को नहीं बताया। न घर में, न दोस्तों को। मुझे पता था- अगर बताया तो सवाल होंगे, ताने होंगे, और शायद रोक भी। मैं कॉलेज में ही तैयारी करता था। क्लास खत्म होने के बाद खाली कमरे में, कभी लाइब्रेरी में बैठकर। रबर से मिटाता, फिर बनाता। रंगों को समझता, चेहरे तलाशता। वो दिन मेरे लिए सिर्फ कॉम्पटीशन की तैयारी के नहीं थे, वो दिन थे जब मैं खुद पर भरोसा करना सीख रहा था। मैं घर में झूठ बोलकर कृष्णागिरि, तमिलनाडु गया। इलाहाबाद से मैं अकेला था। कॉम्पटीशन का दिन आया। समय मिला सिर्फ 5 मिनट। दिल जोर से धड़क रहा था, हाथ कांप रहे थे, लेकिन जैसे ही कागज पर पेंसिल चली सब शांत हो गया। 5 मिनट के अंदर मैंने तीन कलर के तीन चेहरे बनाए। केसरिया, सफेद और हरा। चेहरे अलग थे, रंग अलग थे, लेकिन भाव एक। मैसेज साफ था- इस देश में धर्म, रंग, जाति, पहचान अलग हो सकती है, लेकिन हम सब एक हैं। जब ड्रॉइंग पूरी हुई, लोग रुक-रुककर देखने लगे। जजों ने कहा- “आइडिया अलग है।” नतीजे आए तो मेरा नाम पुकारा गया। ग्लोबल वर्ल्ड रिकॉर्ड का सर्टिफिकेट और मेडल मिला। इसके बाद लगा सब ठीक हो जाएगा। अब पापा मान जाएंगे। घरवाले कहेंगे कि लड़का कुछ कर सकता है। मैं सर्टिफिकेट और मेडल लेकर खुशी-खुशी घर पहुंचा। जैसे ही सर्टिफिकेट उनके सामने रखा, पापा ने बस एक लाइन कही- “या तो ड्रॉइंग चुन ले, या फिर घर…” चाचा और बाकी घरवाले भी वही बोले- “कॉम्पटीशन में सर्टिफिकेट भी जीता तो किसमें, ड्रॉइंग में… तू बस यही कर सकता है।” इस कॉम्पटीशन के लिए मैंने दिन-रात मेहनत की थी। उस वक्त ऐसा लग रहा था जैसे इस मेहनत की कोई कीमत ही नहीं। घरवालों ने मुझसे बात करना बंद कर दिया। दीदी की शादी पहले ही हो चुकी थी। घर में अकेला रह गया था। चाचा के बच्चे मेरे साथ कॉलेज नहीं जाते थे। मैं उनके पास जाता तो वो अपने बच्चों को दूर कर लेते। उन्हें डर था कि मेरे साथ रहेंगे तो मेरे जैसे हो जाएंगे। एक दिन पापा ने फिर पूछा- “तय कर लिया, ड्रॉइंग या घर?” उस दिन तक मुझे समझ आ गया है कि हर जिंदगी एक ही पैमाने से नहीं तौली जा सकती। किसी के लिए हल चलाना जरूरी है, किसी के लिए कैमरा और किसी के लिए एक पेंसिल ही पूरी दुनिया होती है। यही मेरी जिंदगी का मोड़ था। मैंने गहरी सांस ली। बहुत सोचकर बोला- “मुझे ड्रॉइंग करनी है।” इसके बाद सब कुछ बहुत तेजी से हुआ। पापा ने मेरा हाथ पकड़ा, सामान उठाया और बाहर फेंक दिया। दरवाजा बंद, उस वक्त मेरे पास कुछ नहीं था। उस दिन सब कुछ छूट गया घर, परिवार, सहारा। कई घंटे तक मैं दरवाजे के बाहर बैठा रहा। किसी ने गेट नहीं खोला। गुस्से में मैंने भी बैग उठाया और वहां से चला आया। काफी देर अकेला बैठा बस यही सोचता रहा- “अब क्या किया जाए… कहां जाऊं, क्या करूं?” फिर मन में एक नाम आया- बनारस। सोचा वहां कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे। जिंदगी ने घर छीना है तो शायद रास्ता वहीं से शुरू होगा, जहां मुझे कोई नहीं जानता। मैं बनारस पहुंचा। सुबह का वक्त था। रात की थकान अभी शरीर में बाकी थी। मैं सीधे ‘अस्सी घाट’ पहुंचा। सामने गंगाजी बह रही थीं- शांत, गहरी और बेपरवाह। कुछ देर बैठा रहा। गंगा मइया को देखता रहा। लहरों को, घाट की सीढ़ियों पर चढ़ती धूप को। ऐसा लग रहा था जैसे गंगा मइया मुझे देख रही हों, पूछ रही हों- “अब आगे क्या…” भूख भी लगने लगी थी। पेट में हल्की जलन हो रही थी। न खाने का इंतजाम, न रहने की कोई जगह। ख्याल आया- “वापस चला जाऊं?” लेकिन अपनों के दिए ताने याद आ गए। मार, अपमान और वो शब्द- “ड्रॉइंग या घर?” बहुत सह चुका था। ऊपर से घर से अभी तक किसी ने फोन भी नहीं किया था। न कोई खोज-खबर, न कोई सवाल। मैंने तय कर लिया कि अब यहीं रुकूंगा। वहीं, घाट पर ही बैठा रहा। फिर बैग खोला, एक कागज निकाला। फिर जो मन में था वो कागज पर उतरने लगा। डर, अकेलापन, उम्मीद- सब रेखाओं में बदलने लगे। मैं स्केच में इतना डूब गया कि आसपास का शोर गायब हो गया। तभी किसी की आवाज सुनाई दी- “ये कितने का है?” मैं चौंक गया। बगल में देखा, कुछ लड़के खड़े थे। मैंने बिना सोचे, बोल दिया- “50 रुपए…” एक लड़के ने जेब से रुपए निकाले और वो स्केच खरीद लिया। बस, उस एक पल में कुछ बदल गया। उस दिन पहली बार मुझे लगा कि मेरी कला की भी कीमत है। 50 रुपए कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन उस वक्त मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा नोट था। मैंने नाश्ता किया, पेट भर गया था। मेरे पास अभी इतने पैसे नहीं थे कि कमरा किराए पर ले सकूं, इसलिए कई रातें घाट पर ही बीतीं। बैग सिरहाने रखकर सीढ़ियों पर सो जाता था। कई बार भूखा सोना पड़ा, कभी मंदिर के प्रसाद से पेट भरना पड़ा। एक वादा मैंने खुद से कर लिया था कि हार नहीं मानूंगा। मैं रोज घाट पर स्केच बनाने लगा। कुछ लोग सिर्फ देखते, कुछ मोबाइल से फोटो खींचकर चले जाते थे। कुछ लोगों को सच में पसंद आता तो वो स्केच खरीद लेते। पैसे धीरे-धीरे जमा होने लगे। छोटे-छोटे नोट, लेकिन बड़ी उम्मीद। फिर अपने पैसों से मैंने बनारस में एक कमरा किराए पर ले लिया। महीने का किराया तीन हजार रुपए। कमरा छोटा था, दीवारें साधारण लेकिन वो मेरा था। उस दिन लगा जैसे जिंदगी धीरे-धीरे वापस पटरी पर आ रही है। आज भी मैं अस्सी घाट पर ही बैठता हूं। मेरे स्केच देखकर लोग रुकते हैं, देखते हैं। कुछ कहते हैं- “मेरा भी बना दो।” लोग सामने बैठ जाते हैं, चुपचाप… और मैं उनकी आंखों, उनके चेहरे से कहानी पकड़ने की कोशिश करता हूं। कई बार मोबाइल में फोटो देखकर स्केच बनाता हूं। एक स्केच बनने में करीब एक घंटा लगता है। साइज के हिसाब से रेट तय हैं। पोस्टर साइज का 1 हजार रुपए और छोटे स्केच का 500 रुपए। विदेशी भी आते हैं। पहले तो उनकी बात समझ में ही नहीं आती थी। हाथों के इशारे, टूटी-फूटी इंग्लिश बस वहीं तक बात होती थी। तब मैंने सोचा, काम के साथ पढ़ाई भी जरूरी है। मैंने काशी विद्यापीठ में फाइन आर्ट्स में एडमिशन ले लिया। इस समय सेकेंड ईयर में हूं। पढ़ाई, रहना, खाना सब खुद संभालता हूं। एक बार फीस के लिए पापा को फोन किया था। उन्होंने कहा- “जो करना है, खुद करो। मुझसे कोई उम्मीद मत रखना।” फोन कट गया, लेकिन मेरा हौसला नहीं। अब मैं महीने में 80 हजार से ऊपर कमा लेता हूं। अब घर पर भी बात होती है। मम्मी खुश हैं। पापा आज भी नाराज हैं, लेकिन पहले जैसे नहीं। सबसे बड़ा फर्क ये है कि जो लोग मुझे ताने मारते थे, कहते थे कि मैं लड़की हूं। आज वही कहते हैं- “बहुत आगे जाएगा।” अब वही लोग मेरी इंस्टाग्राम स्टोरी लाइक करते हैं, शेयर करते हैं। मैं अब भी अस्सी घाट पर बैठकर पेंसिल से अपनी जिंदगी बना रहा हूं। रास्ता आज भी आसान नहीं। अब फर्क ये है कि मैं खुद से सवाल नहीं करता। किसी से भी कोई शिकायत नहीं, बस यादें हैं। ऐसी यादें, जो आज भी अकेला कर देती हैं। मैंने जिंदगी के मोड़ पर घर को छोड़कर आर्ट को चुना और आज खुश हूं। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ग्राफिक्स- सौरभ कुमार *** कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ———————————————————– सीरीज की ये स्टोरीज भी 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