सोचा नहीं था कबाड़ भी इतना महंगा बिकेगा:यूपी में हाउसवाइफ मां और बेरोजगार बेटी ने खड़ा किया 10 करोड़ का बिजनेस

आज से हम शुरू कर रहे हैं एक नई सीरीज ‘जुगाड़ू उद्यमी’। इसमें आप पढ़ेंगे और देखेंगे ‘जुगाड़’ से निकले इनोवेशन और उसके सक्सेस के किस्से। ऐसी कहानियां, जहां सीमित संसाधनों के बावजूद हुनर और क्रिएटिविटी के अपने दम पर लोग आसमान में ‘चकती’ लगाने से भी नहीं चूके और बन गए लखपति-करोड़पति… इनोवेशन के लिए महंगे संसाधन या बड़ी टेक्नोलॉजी की जरूरत नहीं होती। असली इनोवेशन जरूरत और समझ से पैदा होता है। यही ‘जरूरत’ मेरे स्टार्टअप का आइडिया बनी। नमस्ते, मैं शिखा शाह… बनारस में पैदा हुई और यहां के घाट-गलियों में खेली और पली-बढ़ी। 12वीं के बाद दिल्ली की टेरी यूनिवर्सिटी से एनवायरमेंट साइंस में मास्टर डिग्री हासिल की। पढ़ाई में अच्छी थी, लेकिन मेरा इंट्रेस्ट सिलेबस से आगे नए आइडियाज, इनोवेशन और कुछ अलग करने की सोच की ओर था। ये सोच मुझे कुछ अलग करने के लिए उकसाती थी। इसी दौरान IIT मद्रास के ‘आंत्रप्रेन्योरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम’ के लिए मेरा सिलेक्शन हो गया। ये सिर्फ ट्रेनिंग नहीं, बल्कि सोचने का नया नजरिया देने वाला टर्निंग पॉइंट था। साउथ इंडिया में ‘सस्टेनेबिलिटी’ सिर्फ एक शब्द नहीं है। वहां के लोगों ने इसे अपनी जिंदगी में उतारा है। वहां की सोच, काम करने का तरीका और नेचर के साथ उनके तालमेल ने मुझे काफी प्रभावित किया। ट्रेनिंग के दौरान मुझे कई रूरल प्रोजेक्ट्स पर काम करने का मौका मिला। गांवों में मैंने एक अलग तरह की जिंदगी को बेहद करीब से देखा। सीमित साधनों में भी वे ऐसे-ऐसे जुगाड़ निकालते थे, जो शहरों में बैठे लोग सोच भी नहीं पाते। मिट्टी, धूप, पानी और आपसी सहयोग से वे अपनी जरूरतों को पूरा कर लेते हैं। ये अनुभव मेरे लिए किताबों से कहीं ज्यादा सीख देने वाले थे। इन सारी सीखों और सपनों के बीच एक डर भी हमेशा मेरे साथ चलता रहता था। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ रही थी, मन में एक सवाल भी उठ रहा था- “अगर मैं नौकरी करने बाहर चली गई, तो मम्मी क्या करेंगी? घर की चहल-पहल अचानक सन्नाटे में बदल जाएगी।” ये ख्याल मुझे बहुत परेशान करता था। तब पहली बार आइडिया आया कि क्यों न मम्मी घर पर रहते हुए अपना हुनर इस्तेमाल करें। मेरी मां मधु शाह घर में बेकार पड़ी छोटी-छोटी चीजों से कमाल के डेकोरेटिव आइटम बना देती थीं। वो हाउसवाइफ थीं, लेकिन चीजों को नए नजरिए से देखती हैं। मम्मी कभी बाजार से महंगी या दिखावटी चीजें नहीं लाती थीं। ये उनका आखिरी ऑप्शन होता था। घर में पड़ी पुरानी या बेकार समझी जाने वाली चीज से कुछ नया, रीयूजबल और सुंदर बना देना उनकी आदत थी। मैंने मम्मी से कहा- आप वही कीजिए, जो आप हमेशा से करती आई हैं। पुरानी चीजें, वेस्ट सामान, बेकार कपड़े और कागज… इन सबसे कुछ नया बनाइए। शुरुआत में मम्मी ने मना किया। काफी मनाने पर मम्मी ने फिर से पुरानी चीजों को नया रूप देना शुरू किया। मेरा घर एक बार फिर से क्रिएटिविटी से भरने लगा। यहीं से एक आइडिया ने आकार लेना शुरू किया। इधर घर में मेरी शादी की बात चल रही थी। मुझे अपनी पढ़ाई और काम से ब्रेक लेकर वापस बनारस आना पड़ा। बाहर की दुनिया, नए सपने और आगे का प्लान अचानक रुक गया। फिर भी खाली बैठना मेरे स्वभाव में नहीं था। दिमाग में लगातार यही चलता रहता था कि अगर मैं घर पर हूं तो क्या हुआ, कुछ न कुछ काम जरूर किया जाए। मैं भी मम्मी के साथ कुछ-कुछ बनाने लगी। बचपन से जो काम मैं उन्हें करते देखती आई थी, अब उसी में उनके साथ जुड़ गई। फर्क सिर्फ इतना था कि मैं इसे शौक नहीं संभावना के तौर पर देख रही थी। हम दोनों मिलकर स्क्रैप से नए-नए प्रोडक्ट्स बनाने लगे। कभी डिजाइन बदलते, कभी इस्तेमाल का तरीका। घर का एक कोना धीरे-धीरे वर्कशॉप में बदलने लगा। हमने कबाड़ लगने वाली चीजों को फिर से डिजाइन करके अपसाइकल किया। उनसे छोटे-बड़े होल्डर, प्लांटर, डेकोरेटर, टेबल ऑर्गेनाइजर बनाए। सबसे पहले अपने ही घर की बालकनी को सजाया। हर चीज का एक नया रूप था, एक नई पहचान। धीरे-धीरे घर का एक कमरा पूरी तरह कबाड़ से सजे सामानों का घर बन गया। दीवारों से लेकर कोनों तक, हर जगह मेरे और मम्मी के हाथों से बने प्रोडक्ट्स थे। आज भी वही कमरा हमारी शुरुआत का गवाह है। हमने कबाड़ में सुंदरता ढूंढ ली थी। 2016 में सोच ने आकार लेना शुरू किया। एक दिन मैंने गौर किया कि रोजमर्रा की जिंदगी में हम कितना सारा कबाड़ बिना सोचे-समझे फेंक देते हैं। हमने ग्लास बॉटल्स से शुरुआत की। ये हर शहर में आसानी से मिल जाती हैं, हर साइज और शेप में। हमने दो-तीन सौ बीयर बॉटल्स को डेकोरेटिव पेंट से नया लुक दिया। इसके बाद हमने पहली बार प्रोडक्ट सेल किया। भीड़भाड़ वाले अस्सी घाट पर स्टॉल लगाया। हम काफी नर्वस थे, लोग पसंद करेंगे या नहीं। लेकिन 3-4 घंटे में ही करीब 80 परसेंट सामान बिक गया। उस दिन हमें यकीन हो गया कि हमारी सोच गलत नहीं है। इसके बाद का एक महीना लगातार मेहनत से भरा रहा। मैंने और मम्मी ने मिलकर दो-ढाई सौ बोतलें और तैयार कीं। इस बार हमने बनारस के कुछ मशहूर कैफे चुने। हर कैफे की अपनी पहचान और थीम है। हमने उन्हीं थीम्स के हिसाब से बोतलों पर डिजाइन बनाए और कैफे का नाम पेंट किया। इतनी मेहनत के बाद जब हम कैफे पहुंचे तो हमने उनसे सिर्फ एक बात कही- “आप हमें पैसे मत दीजिए। बस इन बोतलों को अपने कैफे रखिए और इसके बारे में सोशल मीडिया पर बताइए।” ये एक जोखिम था, लेकिन भरोसे का भी कदम था। एक-दो महीने में ही उन्हीं कैफे से ऑर्डर आने लगे। लोग पूछने लगे- ये कहां से लिया? किसने बनाया? सफलता के साथ सवाल भी आए। कुछ लोगों ने कहा- “ये तो कबाड़ है, फिर इतना महंगा क्यों?” किसी ने क्वालिटी पर सवाल उठाए, कुछ नेगेटिव रिव्यू भी मिले। हमने हार नहीं मानी। अपनी कमियों के बारे में सुना, समझा और क्वालिटी पर काम किया। हमें पता था, हम कबाड़ नहीं सोच बेच रहे थे। एक ऐसी सोच, जिसमें वेस्ट भी वैल्यू बन सकता है। यही सोच धीरे-धीरे हमारी पहचान बनती चली गई। धीरे-धीरे हमारा काम चलने लगा। ये सफर बिल्कुल आसान नहीं था। स्क्रैप, वेस्ट और प्री एग्जिस्टिंग मटेरियल अपने आप में काफी चैलेंजिंग कैटेगरी है। शुरुआत में सबसे बड़ी दिक्कत यही थी कि आखिर बनाया क्या जाए? वेस्ट मटेरियल भी काफी तरह का होता है। कांच, लकड़ी, टायर… हर दिन दिमाग में यही चलता रहता था कि कस्टमर को क्या पसंद आएगा? किस चीज की सच में जरूरत है? शुरुआती दिनों में हम काफी कन्फ्यूज रहते थे। इतना कुछ बनाया जा सकता था कि समझ ही नहीं आता था, कहां फोकस करें। कस्टमर हमें बताते थे कि उन्हें इस तरह की जरूरत है, वैसा डिजाइन चाहिए, उस साइज में बनाइए। हम वैसा ही कुछ बनाते थे। रोज नए प्रोडक्ट बनाना थका देने वाला भी था और डायरेक्शन भी साफ नहीं थी। समय के साथ चीजें सेटल होने लगीं। हमें समझ आने लगा कि हर चीज बनाना जरूरी नहीं है। हमने सेलेक्टेड प्रोडक्ट्स पर काम करना शुरू किया। हमने पुराने टायर से फर्नीचर बनाना शुरू किया। आर्मी ट्रंक से कॉफी टेबल तैयार की। बांस से कटलरी होल्डर बनाए और मंदिरों से इकट्ठा किए गए फूलों से अगरबत्ती बनाना शुरू किया। हमें महसूस होने लगा कि हम सिर्फ सामान नहीं बना रहे, बल्कि धीरे-धीरे लोगों की सोच भी बदल रहे हैं। एक सवाल ये भी था कि इसका नाम क्या रखा जाए? पहले दिमाग में ‘वेस्टशाला’ आया, पर बोलने में अटपटा लग रहा था। एक दिन लैपटॉप पर बैठी कबाड़ से जुड़े आइडिया देख रही थी। तभी स्क्रीन पर कबाड़ के लिए ‘स्क्रैप’ शब्द दिखा। उसी पल क्लिक हुआ- ‘स्क्रैप शाला’। अब हमारा सफर शुरू हो चुका था। हमने अपने साथ बनारस के पेंटर, कारपेंटर, टेलर और शिल्पकारों को अपने साथ जोड़ा। उन्हें समझाना मुश्किल था। पुरानी चीजों को ठोंक-पीटकर बिकने लायक बनाना डबल-ट्रिपल मेहनत मांगता है। टायर धोना, साफ करना, उस पर ग्लिसरीन लगाना, फिर बुनाई करना। पुरानी लकड़ी से एक-एक कील निकालकर फर्नीचर के लायक बनाना। अपसाइकिलिंग और रीसाइकिलिंग में रॉ मटेरियल की लागत भले ही कम हो, मेहनत बहुत ज्यादा होती है। कुल कॉस्ट का बड़ा हिस्सा उसी मेहनत का होता है। ये बात लोगों को समझाना सबसे मुश्किल था, लेकिन समय के साथ हालात बदल रहे हैं। 2020 की शुरुआत में कोविड आया, तो जिंदगी की रफ्तार जैसे थम गई। बाजार बंद, सड़कों पर सन्नाटा और हर बिजनेस के सामने एक ही सवाल कि अब आगे क्या होगा। स्क्रैपशाला उस वक्त अपनी पहचान बना रही थी। प्रोडक्ट्स लोगों को पसंद आ रहे थे लेकिन ये नॉन एसेंशियल कैटेगरी के प्रोडक्ट हैं। लॉकडाउन लगते ही सब-कुछ एक झटके में रुक गया। ऑर्डर कैंसिल हो गए, शोरूम बंद हो गए। कॉर्पोरेट गिफ्टिंग, एग्जिबिशन और मेलों से मिलने वाला काम पूरी तरह खत्म हो गया। उस समय सबसे बड़ी चिंता बिजनेस नहीं, वे लोग थे जो स्क्रैपशाला से जुड़े थे। ये लोग सिर्फ कर्मचारी नहीं बल्कि स्क्रैपशाला की रीढ़ थे। कारीगर पूछते थे- आगे काम मिलेगा या नहीं, सैलरी का क्या होगा? उस वक्त इन सवालों के साफ जवाब नहीं थे। सस्टेनेबल प्रोडक्ट्स का मार्केट वैसे ही भारत में लिमिटेड था और कोविड के समय और मुश्किल हो गई। फिर भी हमने इस ठहरे हुए वक्त को खाली नहीं जाने दिया। जब बाहर की दुनिया बंद थी, तब अंदर की तैयारी शुरू हुई। इस दौरान नए प्रोडक्ट्स पर काम किया कस्टमर्स से बातचीत की और उनकी बदलती जरूरतों को समझा। वो सारे काम किए गए, जो आम दिनों में बिजी शेड्यूल की वजह से टल जाते थे। इसी दौरान ऑनलाइन दुनिया में कदम रखा। हमने सोचा अगर लोग हमारे पास नहीं आ सकते, तो हमें लोगों तक पहुंचना होगा। इसी सोच से स्क्रैपशाला की पहली ऑनलाइन वर्कशॉप शुरू हुई। जूम कॉल पर लोग जुड़े। घर बैठे लोग सीखने लगे कि कैसे स्क्रैप और वेस्ट से कुछ नया बनाया जा सकता है। ये एक नया अनुभव था, धीरे-धीरे रिस्पॉन्स आने लगा। सोशल मीडिया पर स्क्रैपशाला की मौजूदगी मजबूत होने लगी। इंस्टाग्राम पोस्ट्स, स्टोरीज और छोटे वीडियो के जरिए स्क्रैप से बने प्रोडक्ट्स की कहानी लोगों तक पहुंचाई गई। हर पोस्ट में ये बताने की कोशिश थी कि ये प्रोडक्ट नहीं, बल्कि एक सोच है। एक ऐसी सोच जो वेस्ट को वैल्यू में बदलती है। कोविड ने लोगों को सोचने पर मजबूर किया कि वे क्या खरीद रहे और क्यों खरीद रहे? इसी बदलाव ने स्क्रैपशाला को दोबारा खड़ा होने का मौका दिया। आज स्क्रैपशाला कई कैटेगरी में काम कर रही है। होम डेकोर, लाइफस्टाइल प्रोडक्ट्स और कॉर्पोरेट गिफ्टिंग जैसी कई कैटेगरी शामिल हैं। मैं और मां, सिर्फ दो लोगों के साथ शुरू हुआ ये सफर आज सैकड़ों हाथों से जुड़ चुका है। घर के कोने से शुरू हुई स्क्रैपशाला आज करीब 500 लोगों की मेहनत बन चुकी है। हमारे पास 250 से ज्यादा प्रोडक्ट हैं और 5 हजार से ज्यादा कस्टमर हमसे जुड़े हैं। बनारस के लोकल पेंटर, कारपेंटर और शिल्पकार भी इस सफर का हिस्सा हैं। अगर हम सिर्फ प्रोडक्ट बेस्ड कंपनी बनाते तो हमारा दायरा सीमित रह जाता। हमने स्क्रैपशाला को कंपनी की तरह नहीं, बल्कि ऑर्गेनाइजेशन की तरह खड़ा किया, जो स्क्रैप मैनेजमेंट पर काम करता है। हम प्रोडक्ट बनाने के साथ ही वर्कशॉप करते हैं, ट्रेनिंग देते हैं और एजुकेटिव सेशन के जरिए लोगों को जागरूक भी करते हैं। हमें ‘शार्क टैंक इंडिया’ के मंच पर इंवेस्टर्स के सामने अपने प्रोडक्ट्स प्रेजेंट करने का मौका मिला। ये हमारे लिए एक बड़ा मौका साबित हुआ। उसके बाद स्क्रैपशाला की पहचान सिर्फ एक ब्रांड नहीं, बल्कि एक आंदोलन के रूप में बदल गई। ‘वेस्ट से बेस्ट’ बनाने की सोच ‘स्क्रैपशाला’ के रूप में 10 करोड़ रुपए का ऑर्गेनाइजेशन बन चुकी है। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ———————————————————– अन्य सीरीज ‘जिंदगी के मोड़ पे’ की ये स्टोरी भी पढ़ें… टीवी डिबेट देख जॉब छोड़ी, घरवाले बोले-पागल हो गया; IIIT वाले ने गोबर-गोमूत्र से बना डाली करोड़ों की कंपनी आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि जिंदगी कब और कैसे करवट बदलती है, पता ही नहीं चलता। करीब 14 साल सॉफ्टवेयर इंजीनियर के तौर पर अलग-अलग कंपनियों में काम किया। इस दौरान यूरोप, अमेरिका और साउथ ईस्ट एशिया के कई शहरों में रहा। पूरी स्टोरी पढ़ें…