‘सनक: यूपी के सीरियल किलर’ में आज पढ़िए और देखिए अलीगढ़ के ऐसे डॉक्टर की कहानी, जिसने 50 हत्याओं के बाद गिनना ही बंद कर दिया था। हत्या करने के बाद लाश मगरमच्छों से भरी नहर में फेंक देता। मरने वाले की हड्डियां तक नहीं मिलतीं। यही वजह थी कि वो सालों तक बचा रहा और कहलाया ‘डॉक्टर डेथ’… गुड़गांव बस अड्डा, 3 फरवरी 2002 की शाम। हॉर्न की आवाजें, बसें लगातार आ-जा रही थीं। कोई बस पकड़ने के लिए दौड़ रहा था, तो कोई किसी का इंतजार कर रहा था। टैक्सी स्टैंड पर गाड़ियां लाइन से खड़ी थीं। भीड़ के बीच से एक आदमी आया और टैक्सी ड्राइवर नरेश की ओर देखकर बोला- “बरेली चलोगे?” नरेश ने सिर उठाया और सहजता से जवाब दिया- “हां साब जरूर जाएंगे।” किराया तय होने के बाद नरेश ने पास के PCO से अपने घर फोन किया। पत्नी को बताया- “मैं बरेली जा रहा हूं। दो दिन में लौट आऊंगा।” फिर उसने गाड़ी का दरवाजा पटका, स्टीयरिंग संभाली और गाड़ी बढ़ा दी। 2 दिन बीत गए, लेकिन नरेश घर नहीं लौटा। नरेश का भाई रामनिवास थाने पहुंचा और बोला- “भाई बरेली गया था। गाड़ी स्टेशन से चली थी, लेकिन अब-तक कोई खबर नहीं है।” पुलिस ने FIR दर्ज करके जांच शुरू की। बसस्टॉप और डिपो खंगाले, गवर्नमेंट रेलवे पुलिस (GRP) से बात की। लेकिन न गाड़ी का पता चला और न ड्राइवर का। 18 जनवरी 2004, जयपुर जंक्शन। दोपहर का समय। प्लेटफॉर्म पर भीड़ थी और बाहर टैक्सी स्टैंड पर ड्राइवर छांव में सुस्ता रहे थे। तभी एक आदमी आया और टाटा सूमो बुक कराई। ड्राइवर का नाम था चांद खान। सवारी ने अपना नाम बताया- ‘मुकेश खंडेलवाल।’ बोला- “हापुड़ जाना है। वहां से पत्नी-बच्चों को लेकर लौटना है।” किराया तय हुआ 2100 रुपए। चांद ने एहतियात बरतते हुए कहा- “भाई, शराफत भी साथ चलेगा।”
मुकेश अटककर बोला- “क्या ये भी साथ बैठेंगे?”
चांद मुस्कुराया और जवाब दिया- “हां साब, आजकल टैक्सी ड्राइवरों के साथ बहुत हादसे हो रहे हैं। हम दोनों चलेंगे।” गाड़ी जयपुर से चल पड़ी और रास्ते में दौसा जिले के महवा में एक PCO के पास रुकी। दोनों भाई टैक्सी से उतरे। चांद ने घर फोन किया- “अब्बू, हम हापुड़ जा रहे हैं। कल सुबह तक लौट आएंगे।”
उधर से आवाज आई- “ठीक है, खबर देते रहना।” एक फोन मुकेश ने भी किया। इसके बाद गाड़ी आगे बढ़ गई। 2 दिन बीत गए, लेकिन चांद और शराफत नहीं लौटे। पिता गफ्फार खान GRP थाने पहुंचे और गुमशुदगी दर्ज कराई। पुलिस हरकत में आई। यह जयपुर रेलवे स्टेशन पर इस तरह की तीसरी-चौथी घटना थी। लिहाजा जयपुर रेंज के DIG हरिश्चंद्र मीणा ने मामलों की छानबीन के लिए GRP और सिविल पुलिस की स्पेशल टीम बनाई। शहर की SP डॉ. प्रशाखा माथुर को इसका जिम्मा दिया गया। जांच शुरू हुई तो धीरे-धीरे एक पैटर्न बनने लगा था। 2002 से 2004 के बीच सिर्फ जयपुर ही नहीं बल्कि गुड़गांव, गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ, अलवर, रेवाड़ी, बल्लभगढ़, फरीदाबाद में भी इसी तरह की घटनाओं के रिकॉर्ड मिले। हर केस की शुरुआत लगभग एक जैसी- स्टेशन या बस अड्डा, बाहर खड़ी टैक्सी, एक सवारी, यूपी में कहीं जाने की बुकिंग, एक रेट, सफर और फिर शून्य। टैक्सी ड्राइवरों के परिवार थानों में दौड़ते, रिपोर्टें लिखी जातीं। आधे-अधूरे और टूटे-फूटे बयान, बार-बार जांच अटकती, फाइलें मोटी होती जातीं और आखिर में थक-हारकर केस बंद हो जाता। दरअसल, उस समय न तो CCTV इतने आम थे और न मोबाइल। ड्राइवर या सवारी की लोकेशन मिलना बहुत मुश्किल था। पुलिस अपने थाने की सीमाओं के भीतर ही काम करती थी। कोई ये देख ही नहीं पा रहा था कि सभी घटनाएं एक-दूसरे से जुड़ी हैं। हालांकि, इस बार ऐसा नहीं हुआ। GRP थाना प्रभारी मंसूर अली और सबइंस्पेक्टर महेंद्र भगत टीम लेकर महवा गए। जहां से आखिरी बार फोन हुआ था। PCO का रजिस्टर देखा। तारीख और समय मिलाया। चांद की फोन कॉल के बाद एक और एंट्री चमकी। नंबर यूपी में अलीगढ़ के पास कासिमपुर का था। नंबर चाय बेचने वाली किसी महिला का था। पुलिस ने कासिमपुर पहुंचकर महिला से पूछताछ की। उसने बताया- “मेरे रिश्तेदार उदयवीर और राजू से बात करने के लिए फोन आया था। कोई डॉक्टर था। इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं पता।” इस बीच कासगंज-एटा के पास हजारा नहर से दो लाशें मिलीं। लाशों की हालत इतनी खराब थी कि पहचान मुश्किल थी। पोस्टमॉर्टम हुआ; 72 घंटे तक चौकी की घड़ी टिक-टिक करती रही, पर कोई वारिस थाने के दरवाजे तक नहीं आया। “अंतिम संस्कार कर दो…” ड्यूटी ऑफिसर ने फाइल बंद करते हुए कहा। लाशों से सिर्फ दो चीजें बरामद हुईं- एक कंबल और एक हाथ घड़ी। कुछ दिनों बाद कंट्रोल रूम के फोन की घंटी बजी। वायर के उस पार किसी थानेदार की आवाज थी- “जयपुर, राजस्थान से बोल रहा हूं… हमारे यहां से दो भाई गुमशुदा हैं। ” एटा पुलिस के सिपाही ने रजिस्टर पलटा, फोटो फोल्डर खोला और जवाब दिया, “यहां कुछ दिन पहले दो लाश मिली थीं। किसी ने दावा नहीं किया तो अंतिम संस्कार कर दिया। उनकी तस्वीर और बरामद सामान हमारे पास है। एक बार शिनाख्त कर लीजिए आकर…।” पुलिस, गफ्फार खान को लेकर एटा पहुंची। गफ्फार ने सामान देखा तो उनके चेहरे का रंग बदल गया। फूट-फूटकर रोते हुए बोले- “ये मेरे ही बच्चों की निशानी है।” हत्या का मुकदमा दर्ज हुआ और नए सिरे से जांच शुरू हुई। जयपुर रेलवे स्टेशन पर टैक्सी ड्राइवरों और दुकानदारों से उस दिन की बारीक से बारीक डीटेल्स ली गईं। चांद और शराफत की टैक्सी किसने बुक की थी, कैसा दिखता था? इसके आधार पर उस आदमी का स्केच तैयार किया गया। वह स्केच उन सभी राज्यों के थानों को भेजा गया, जहां टैक्सी ड्राइवरों के साथ ऐसी घटनाएं हुई थीं। पता चला कि स्केच ठगी के आरोपी डॉ. देवेंद्र शर्मा से मिलता था। वह उस समय अलीगढ़ की जेल में ही था। केस की कड़ियां जुड़ने लगी थीं। चाय वाली महिला ने भी किसी डॉक्टर के बारे में बताया था। उसके रिश्तेदार और राजू भी पकड़े गए थे। जांच टीम को उनसे काफी अहम सुराग मिले थे। अब बारी थी डॉ. देवेंद्र शर्मा से पूछताछ की। GRP और सिविल पुलिस की टीम जेल पहुंची और मामले में देवेंद्र शर्मा से पूछताछ शुरू की। सब इंस्पेक्टर- चांद और शराफत खान कहां है?
देवेंद्र- मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता। मैं तो BAMS डॉक्टर हूं। ठगी के झूठे केस में मुझे फंसाया जा रहा है।
सबइंस्पेक्टर- महवा के PCO से दो कॉल हुई थीं- एक जयपुर और दूसरी कासिमपुर…। दूसरी कॉल तुमने की थी, PCO वाले ने तुम्हारा स्केच पहचाना है।
देवेंद्र- पहचान अक्सर धोखा देती है साब। सबइंस्पेक्टर ने मेज पर धीरे से स्केच रखते हुए कहा- ये देखो स्केच तुमसे मिलता है। तुम्हारे खास, उदयवीर और राजू पकड़े गए हैं। दोनों ने बताया है कि मर्डर तुम्ही ने किए हैं। इतना सुनते ही देवेंद्र की अकड़ खत्म हो गई। उसने कुबूल कर लिया कि चांद खां की टाटा सूमो उसी ने ‘मुकेश’ नाम से बुक कराई थी। PCO से फोन करके उसने उदयवीर और राजू से कासिमपुर के आगे पुल से पहले कच्चे मोड़ पर मिलने को कहा था। गाड़ी वहां पहुंची तो देवेंद्र ने चांद से कहा, “ये दोनों मेरे लोग हैं। इन्हें भी हापुड़ जाना है।” चांद ने अपने भाई शराफत की तरफ देखा। उसने सिर हिलाया और कहा- “जल्दी बैठिए…।” गाड़ी आगे बढ़ी। डैशबोर्ड की घड़ी रात 8:55 बजा रही थी। देवेंद्र ने सहज लहजे में कहा, “ड्राइवर साब, जरा रोकिए। टायर से कुछ आवाज आ रही है।” चांद ने पुल से पहले सड़क किनारे गाड़ी लगाई। पीछे के दरवाजे खुले, अंधेरा और सरसराहट एक साथ भीतर आई। देवेंद्र ने पीछे मुड़कर धीरे से कहा, “कंबल पीछे है, सीट पर बिछा दो।” उसी पल उदयवीर और राजू ने बेल्ट निकाल ली। चांद झुककर टायर देख ही रहा था कि गर्दन के चारों ओर बेल्ट कस गई- “कसके खींच, छोड़ना मत…।” पीछे से फुसफुसाहट आई। शराफत ने पीछे देखा और चिल्लाया, “ओए, ये क्या…।” वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि दूसरी बेल्ट उसके गले पर जकड़ गई। केबिन में कुछ पल जूझने की खड़खड़, टेढ़े पड़े इंडिकेटर की टिक-टिक और फिर सन्नाटा हो गया। दोनों भाई के शरीर में हरकत बंद हो गई। देवेंद्र ने इशारा किया। नहर की सतह दिखाई दे रही थी। पहले कंबल सीट से उठा- फिर दोनों भाइयों की लाशें कंधे पर उठाई। पहले एक और फिर दूसरी लाश नहर में फेंक दी। दो बार छपाक की आवाज आई। नहर ने दोनों को अपने भीतर समा लिया। देवेंद्र ने बिना पीछे देखे कहा, “चलो…।” अब ड्राइविंग सीट पर उदयवीर था। उसे मालूम था कि नहर मगरमच्छों से भरी है। उसमें कोई लाश फेंकी तो हड्डियां तक नहीं मिलेंगी। जब पुलिस ने डॉ देवेंद्र से और कड़ाई से पूछना शुरू किया तो परतें खुलती चली गईं। पता चला कि वो सीरियल किलर है अलीगढ़ के छर्रा थाना क्षेत्र के पुरैनी गांव के रहने वाले देवेंद्र ने 1984 में बिहार से बैचलर ऑफ आयुर्वेदिक मेडिसिन एंड सर्जरी (BAMS) की डिग्री ली। इसके बाद राजस्थान के बांदीकुई में ‘जनता क्लिनिक’ नाम से करीब 10 साल तक अपनी डिस्पेंसरी चलाई। साल 1994 में वो गांव लौटा। यहां उसने LPG गैस एजेंसी खोलने की सोची। इस चक्कर में उसने 11 लाख रुपए गंवा दिए क्योंकि गैस एजेंसी देने वाली कंपनी फर्जी थी। यहीं से उसकी जिंदगी ने खतरनाक मोड़ लिया। वो गैस एजेंसी नहीं ले पाया तो उसने फर्जी गैस एजेंसी खोल ली। उसने चोरी के गैस सिलेंडर लाकर बेचने शुरू कर दिए, लेकिन इससे कमाई नहीं हो रही थी। कुछ साल बाद उसकी मुलाकात अवैध किडनी ट्रांसप्लांट करने वाले डॉ अमित कुमार से हुई। देवेंद्र ने डॉ अमित के लिए काम करना शुरू कर दिया। गरीब और कम पढ़े-लिखे लोगों को पैसों का लालच देकर उनकी किडनी निकाल ली जाती। इसके साथ ही देवेंद्र ने गैस सिलेंडर सप्लाई करने वाले ट्रक ड्राइवरों को शिकार बनाना शुरू किया। अपने साथियों के साथ मिलकर सिलेंडर से लदे ट्रक लूटता और ड्राइवरों की किडनी निकालकर मगरमच्छों से भरी हजारा नहर में फेंक देता। एक किडनी से लिए डॉक्टर देवेंद्र को 4 से 5 लाख रुपए मिलते। सिलेंडर उसकी फर्जी गैस एजेंसी पर उतरते और ट्रक हापुड़ चोर बाजार में बिक जाता। इस धंधे में देवेंद्र ने मोटा पैसा कमाया। 1998 से 2004 तक महज छह साल में देवेंद्र शर्मा ने 125 से ज्यादा अवैध किडनी ट्रांसप्लांट कराए। देवेंद्र से जब पूछा गया कि उसने अब-तक कितने ट्रक ड्राइवरों की किडनी निकालकर मारा है तो उसका जवाब था कि 50 के बाद गिनती करनी छोड़ दी थी। इसी तरह देवेंद्र ने अलग-अलग राज्यों के टैक्सी ड्राइवरों को निशाना बनाना शुरू किया। चांद और शराफत के मर्डर केस में डॉ देवेंद्र शर्मा, उसके दोनों साथियों उदयवीर और राजू को 2018 में उम्रकैद की सजा हुई। इसके अलावा पांच और मामलों में भी फैसले आए जिसमें से एक में देवेंद्र को फांसी हुई। जनवरी, 2020 में देवेंद्र शर्मा 20 दिन की पैरोल पर जयपुर सेंट्रल जेल से बाहर आया। पैरोल खत्म होने के बाद सरेंडर करने के बजाय फरार हो गया। उसने दिल्ली में एक विधवा से शादी की और प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करने लगा। जुलाई, 2020 में पुलिस को खबर मिली कि देवेंद्र दिल्ली में है। दिल्ली पुलिस ने उसे गिरफ्तार करके जयपुर पुलिस को सुपुर्द कर दिया। अगस्त, 2023 में वह 2 महीने की पैरोल पर बाहर आया और फरार हो गया। करीब दो साल तक राजस्थान के दौसा जिले के एक आश्रम में पुजारी बनकर छिपा रहा। वहां प्रवचन देता था। साधु था इसलिए दिल्ली पुलिस ने उसे पकड़ने के लिए सावधानी बरती। पुलिस रेकी करने के लिए आश्रम में जाने लगी। मई, 2025 में पुलिस ने उसे आश्रम से गिरफ्तार किया। गिरफ्तारी के वक्त देवेंद्र प्रवचन दे रहा था, “जीव हिंसा महापाप है और इसका कोई प्रायश्चित नहीं है।” इस समय डॉ देवेंद्र शर्मा दिल्ली की तिहाड़ जेल में सजा काट रहा है। अलीगढ़ में डॉ देवेंद्र शर्मा उर्फ डॉक्टर डेथ के गांव में जब भास्कर टीम पहुंची तो गांववाले बात करने को तैयार नहीं हुए। एक-आध लोगों ने दबी जुबान में बताया कि जुर्म की दुनिया का ये डॉक्टर अब जेल से ही अपना गिरोह चलाता है। वहीं से फोन करके रंगदारी वसूलता है। किसी ने खिलाफत की तो उसके गुर्गे मरने-मारने पर उतर आते हैं। **** (नोट- ये रियल स्टोरी केस से जुड़े पुलिस अफसर, सीनियर जर्नलिस्ट और स्थानीय लोगों से बातचीत पर आधारित है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी का इस्तेमाल करके लिखा गया है।)
मुकेश अटककर बोला- “क्या ये भी साथ बैठेंगे?”
चांद मुस्कुराया और जवाब दिया- “हां साब, आजकल टैक्सी ड्राइवरों के साथ बहुत हादसे हो रहे हैं। हम दोनों चलेंगे।” गाड़ी जयपुर से चल पड़ी और रास्ते में दौसा जिले के महवा में एक PCO के पास रुकी। दोनों भाई टैक्सी से उतरे। चांद ने घर फोन किया- “अब्बू, हम हापुड़ जा रहे हैं। कल सुबह तक लौट आएंगे।”
उधर से आवाज आई- “ठीक है, खबर देते रहना।” एक फोन मुकेश ने भी किया। इसके बाद गाड़ी आगे बढ़ गई। 2 दिन बीत गए, लेकिन चांद और शराफत नहीं लौटे। पिता गफ्फार खान GRP थाने पहुंचे और गुमशुदगी दर्ज कराई। पुलिस हरकत में आई। यह जयपुर रेलवे स्टेशन पर इस तरह की तीसरी-चौथी घटना थी। लिहाजा जयपुर रेंज के DIG हरिश्चंद्र मीणा ने मामलों की छानबीन के लिए GRP और सिविल पुलिस की स्पेशल टीम बनाई। शहर की SP डॉ. प्रशाखा माथुर को इसका जिम्मा दिया गया। जांच शुरू हुई तो धीरे-धीरे एक पैटर्न बनने लगा था। 2002 से 2004 के बीच सिर्फ जयपुर ही नहीं बल्कि गुड़गांव, गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ, अलवर, रेवाड़ी, बल्लभगढ़, फरीदाबाद में भी इसी तरह की घटनाओं के रिकॉर्ड मिले। हर केस की शुरुआत लगभग एक जैसी- स्टेशन या बस अड्डा, बाहर खड़ी टैक्सी, एक सवारी, यूपी में कहीं जाने की बुकिंग, एक रेट, सफर और फिर शून्य। टैक्सी ड्राइवरों के परिवार थानों में दौड़ते, रिपोर्टें लिखी जातीं। आधे-अधूरे और टूटे-फूटे बयान, बार-बार जांच अटकती, फाइलें मोटी होती जातीं और आखिर में थक-हारकर केस बंद हो जाता। दरअसल, उस समय न तो CCTV इतने आम थे और न मोबाइल। ड्राइवर या सवारी की लोकेशन मिलना बहुत मुश्किल था। पुलिस अपने थाने की सीमाओं के भीतर ही काम करती थी। कोई ये देख ही नहीं पा रहा था कि सभी घटनाएं एक-दूसरे से जुड़ी हैं। हालांकि, इस बार ऐसा नहीं हुआ। GRP थाना प्रभारी मंसूर अली और सबइंस्पेक्टर महेंद्र भगत टीम लेकर महवा गए। जहां से आखिरी बार फोन हुआ था। PCO का रजिस्टर देखा। तारीख और समय मिलाया। चांद की फोन कॉल के बाद एक और एंट्री चमकी। नंबर यूपी में अलीगढ़ के पास कासिमपुर का था। नंबर चाय बेचने वाली किसी महिला का था। पुलिस ने कासिमपुर पहुंचकर महिला से पूछताछ की। उसने बताया- “मेरे रिश्तेदार उदयवीर और राजू से बात करने के लिए फोन आया था। कोई डॉक्टर था। इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं पता।” इस बीच कासगंज-एटा के पास हजारा नहर से दो लाशें मिलीं। लाशों की हालत इतनी खराब थी कि पहचान मुश्किल थी। पोस्टमॉर्टम हुआ; 72 घंटे तक चौकी की घड़ी टिक-टिक करती रही, पर कोई वारिस थाने के दरवाजे तक नहीं आया। “अंतिम संस्कार कर दो…” ड्यूटी ऑफिसर ने फाइल बंद करते हुए कहा। लाशों से सिर्फ दो चीजें बरामद हुईं- एक कंबल और एक हाथ घड़ी। कुछ दिनों बाद कंट्रोल रूम के फोन की घंटी बजी। वायर के उस पार किसी थानेदार की आवाज थी- “जयपुर, राजस्थान से बोल रहा हूं… हमारे यहां से दो भाई गुमशुदा हैं। ” एटा पुलिस के सिपाही ने रजिस्टर पलटा, फोटो फोल्डर खोला और जवाब दिया, “यहां कुछ दिन पहले दो लाश मिली थीं। किसी ने दावा नहीं किया तो अंतिम संस्कार कर दिया। उनकी तस्वीर और बरामद सामान हमारे पास है। एक बार शिनाख्त कर लीजिए आकर…।” पुलिस, गफ्फार खान को लेकर एटा पहुंची। गफ्फार ने सामान देखा तो उनके चेहरे का रंग बदल गया। फूट-फूटकर रोते हुए बोले- “ये मेरे ही बच्चों की निशानी है।” हत्या का मुकदमा दर्ज हुआ और नए सिरे से जांच शुरू हुई। जयपुर रेलवे स्टेशन पर टैक्सी ड्राइवरों और दुकानदारों से उस दिन की बारीक से बारीक डीटेल्स ली गईं। चांद और शराफत की टैक्सी किसने बुक की थी, कैसा दिखता था? इसके आधार पर उस आदमी का स्केच तैयार किया गया। वह स्केच उन सभी राज्यों के थानों को भेजा गया, जहां टैक्सी ड्राइवरों के साथ ऐसी घटनाएं हुई थीं। पता चला कि स्केच ठगी के आरोपी डॉ. देवेंद्र शर्मा से मिलता था। वह उस समय अलीगढ़ की जेल में ही था। केस की कड़ियां जुड़ने लगी थीं। चाय वाली महिला ने भी किसी डॉक्टर के बारे में बताया था। उसके रिश्तेदार और राजू भी पकड़े गए थे। जांच टीम को उनसे काफी अहम सुराग मिले थे। अब बारी थी डॉ. देवेंद्र शर्मा से पूछताछ की। GRP और सिविल पुलिस की टीम जेल पहुंची और मामले में देवेंद्र शर्मा से पूछताछ शुरू की। सब इंस्पेक्टर- चांद और शराफत खान कहां है?
देवेंद्र- मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता। मैं तो BAMS डॉक्टर हूं। ठगी के झूठे केस में मुझे फंसाया जा रहा है।
सबइंस्पेक्टर- महवा के PCO से दो कॉल हुई थीं- एक जयपुर और दूसरी कासिमपुर…। दूसरी कॉल तुमने की थी, PCO वाले ने तुम्हारा स्केच पहचाना है।
देवेंद्र- पहचान अक्सर धोखा देती है साब। सबइंस्पेक्टर ने मेज पर धीरे से स्केच रखते हुए कहा- ये देखो स्केच तुमसे मिलता है। तुम्हारे खास, उदयवीर और राजू पकड़े गए हैं। दोनों ने बताया है कि मर्डर तुम्ही ने किए हैं। इतना सुनते ही देवेंद्र की अकड़ खत्म हो गई। उसने कुबूल कर लिया कि चांद खां की टाटा सूमो उसी ने ‘मुकेश’ नाम से बुक कराई थी। PCO से फोन करके उसने उदयवीर और राजू से कासिमपुर के आगे पुल से पहले कच्चे मोड़ पर मिलने को कहा था। गाड़ी वहां पहुंची तो देवेंद्र ने चांद से कहा, “ये दोनों मेरे लोग हैं। इन्हें भी हापुड़ जाना है।” चांद ने अपने भाई शराफत की तरफ देखा। उसने सिर हिलाया और कहा- “जल्दी बैठिए…।” गाड़ी आगे बढ़ी। डैशबोर्ड की घड़ी रात 8:55 बजा रही थी। देवेंद्र ने सहज लहजे में कहा, “ड्राइवर साब, जरा रोकिए। टायर से कुछ आवाज आ रही है।” चांद ने पुल से पहले सड़क किनारे गाड़ी लगाई। पीछे के दरवाजे खुले, अंधेरा और सरसराहट एक साथ भीतर आई। देवेंद्र ने पीछे मुड़कर धीरे से कहा, “कंबल पीछे है, सीट पर बिछा दो।” उसी पल उदयवीर और राजू ने बेल्ट निकाल ली। चांद झुककर टायर देख ही रहा था कि गर्दन के चारों ओर बेल्ट कस गई- “कसके खींच, छोड़ना मत…।” पीछे से फुसफुसाहट आई। शराफत ने पीछे देखा और चिल्लाया, “ओए, ये क्या…।” वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि दूसरी बेल्ट उसके गले पर जकड़ गई। केबिन में कुछ पल जूझने की खड़खड़, टेढ़े पड़े इंडिकेटर की टिक-टिक और फिर सन्नाटा हो गया। दोनों भाई के शरीर में हरकत बंद हो गई। देवेंद्र ने इशारा किया। नहर की सतह दिखाई दे रही थी। पहले कंबल सीट से उठा- फिर दोनों भाइयों की लाशें कंधे पर उठाई। पहले एक और फिर दूसरी लाश नहर में फेंक दी। दो बार छपाक की आवाज आई। नहर ने दोनों को अपने भीतर समा लिया। देवेंद्र ने बिना पीछे देखे कहा, “चलो…।” अब ड्राइविंग सीट पर उदयवीर था। उसे मालूम था कि नहर मगरमच्छों से भरी है। उसमें कोई लाश फेंकी तो हड्डियां तक नहीं मिलेंगी। जब पुलिस ने डॉ देवेंद्र से और कड़ाई से पूछना शुरू किया तो परतें खुलती चली गईं। पता चला कि वो सीरियल किलर है अलीगढ़ के छर्रा थाना क्षेत्र के पुरैनी गांव के रहने वाले देवेंद्र ने 1984 में बिहार से बैचलर ऑफ आयुर्वेदिक मेडिसिन एंड सर्जरी (BAMS) की डिग्री ली। इसके बाद राजस्थान के बांदीकुई में ‘जनता क्लिनिक’ नाम से करीब 10 साल तक अपनी डिस्पेंसरी चलाई। साल 1994 में वो गांव लौटा। यहां उसने LPG गैस एजेंसी खोलने की सोची। इस चक्कर में उसने 11 लाख रुपए गंवा दिए क्योंकि गैस एजेंसी देने वाली कंपनी फर्जी थी। यहीं से उसकी जिंदगी ने खतरनाक मोड़ लिया। वो गैस एजेंसी नहीं ले पाया तो उसने फर्जी गैस एजेंसी खोल ली। उसने चोरी के गैस सिलेंडर लाकर बेचने शुरू कर दिए, लेकिन इससे कमाई नहीं हो रही थी। कुछ साल बाद उसकी मुलाकात अवैध किडनी ट्रांसप्लांट करने वाले डॉ अमित कुमार से हुई। देवेंद्र ने डॉ अमित के लिए काम करना शुरू कर दिया। गरीब और कम पढ़े-लिखे लोगों को पैसों का लालच देकर उनकी किडनी निकाल ली जाती। इसके साथ ही देवेंद्र ने गैस सिलेंडर सप्लाई करने वाले ट्रक ड्राइवरों को शिकार बनाना शुरू किया। अपने साथियों के साथ मिलकर सिलेंडर से लदे ट्रक लूटता और ड्राइवरों की किडनी निकालकर मगरमच्छों से भरी हजारा नहर में फेंक देता। एक किडनी से लिए डॉक्टर देवेंद्र को 4 से 5 लाख रुपए मिलते। सिलेंडर उसकी फर्जी गैस एजेंसी पर उतरते और ट्रक हापुड़ चोर बाजार में बिक जाता। इस धंधे में देवेंद्र ने मोटा पैसा कमाया। 1998 से 2004 तक महज छह साल में देवेंद्र शर्मा ने 125 से ज्यादा अवैध किडनी ट्रांसप्लांट कराए। देवेंद्र से जब पूछा गया कि उसने अब-तक कितने ट्रक ड्राइवरों की किडनी निकालकर मारा है तो उसका जवाब था कि 50 के बाद गिनती करनी छोड़ दी थी। इसी तरह देवेंद्र ने अलग-अलग राज्यों के टैक्सी ड्राइवरों को निशाना बनाना शुरू किया। चांद और शराफत के मर्डर केस में डॉ देवेंद्र शर्मा, उसके दोनों साथियों उदयवीर और राजू को 2018 में उम्रकैद की सजा हुई। इसके अलावा पांच और मामलों में भी फैसले आए जिसमें से एक में देवेंद्र को फांसी हुई। जनवरी, 2020 में देवेंद्र शर्मा 20 दिन की पैरोल पर जयपुर सेंट्रल जेल से बाहर आया। पैरोल खत्म होने के बाद सरेंडर करने के बजाय फरार हो गया। उसने दिल्ली में एक विधवा से शादी की और प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करने लगा। जुलाई, 2020 में पुलिस को खबर मिली कि देवेंद्र दिल्ली में है। दिल्ली पुलिस ने उसे गिरफ्तार करके जयपुर पुलिस को सुपुर्द कर दिया। अगस्त, 2023 में वह 2 महीने की पैरोल पर बाहर आया और फरार हो गया। करीब दो साल तक राजस्थान के दौसा जिले के एक आश्रम में पुजारी बनकर छिपा रहा। वहां प्रवचन देता था। साधु था इसलिए दिल्ली पुलिस ने उसे पकड़ने के लिए सावधानी बरती। पुलिस रेकी करने के लिए आश्रम में जाने लगी। मई, 2025 में पुलिस ने उसे आश्रम से गिरफ्तार किया। गिरफ्तारी के वक्त देवेंद्र प्रवचन दे रहा था, “जीव हिंसा महापाप है और इसका कोई प्रायश्चित नहीं है।” इस समय डॉ देवेंद्र शर्मा दिल्ली की तिहाड़ जेल में सजा काट रहा है। अलीगढ़ में डॉ देवेंद्र शर्मा उर्फ डॉक्टर डेथ के गांव में जब भास्कर टीम पहुंची तो गांववाले बात करने को तैयार नहीं हुए। एक-आध लोगों ने दबी जुबान में बताया कि जुर्म की दुनिया का ये डॉक्टर अब जेल से ही अपना गिरोह चलाता है। वहीं से फोन करके रंगदारी वसूलता है। किसी ने खिलाफत की तो उसके गुर्गे मरने-मारने पर उतर आते हैं। **** (नोट- ये रियल स्टोरी केस से जुड़े पुलिस अफसर, सीनियर जर्नलिस्ट और स्थानीय लोगों से बातचीत पर आधारित है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी का इस्तेमाल करके लिखा गया है।)