पति ने प्राइवेट पार्ट पर एसिड डाला:दो दिन घर में ही पड़ी रही प्रेग्नेंट रेहाना, डॉक्टर रोज निकालते थे मांस के लोथड़े

कानपुर की गलियों से विदा होकर लखनऊ आई तो हाथों में मेहंदी और आंखों में सपने थे। अम्मी कहा करती थीं- “लड़कियां अपनी ख्वाहिशें ससुराल में पूरी करती हैं।” अब्बू को अम्मी की हसरतें पूरी करते देखा भी था। मेरी जिंदगी इससे बहुत जुदा है। आदाब, मैं रेहाना… लखनऊ के एक ‘खास’ कैफे में काम करती हूं। इस खास की कहानी आगे बताऊंगी। मैं 15 साल की थी। तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी। किताबों में सपने ढूंढने की उम्र में मेरे लिए रिश्ते ढूंढे़ जा रहे थे। घर में फिक्र का माहौल था। नाते-रिश्तेदार, दूर के जान-पहचान वाले हर जगह रिश्ता खोजा जा रहा था। किसी की नजर में “अब बड़ी हो गई है” वाली लड़की थी, तो कोई “अब देर मत करो” वाली फिक्र करता सुनाई देता। एक दिन अब्बू घर लौटे और अम्मी को आवाज देने लगे। अम्मी छत पर कुछ काम कर रही थीं। आवाज उन तक नहीं पहुंची। मैं नीचे ही थी तो पूछ लिया- “क्या हुआ अब्बू? कुछ काम था तो मुझे बताइए।” अब्बू के चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गई। बोले- “तुम्हारे लिए लड़का ढूंढ लिया है। लखनऊ में रहता है। बहुत बड़ा घर है।” मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। समझ नहीं आया क्या कहूं। बिना सोचे मैंने पूछ लिया- “चाय बनाऊं?” इतने में अम्मी भी नीचे आ गईं। मैं चुपचाप कमरे में चली गई। बाहर अब्बू-अम्मी की बातचीत चलती रही। शादी की बातें, घर की बातें, जिम्मेदारियों की बातें। मैं कमरे में बैठी सोचती रही, शर्म भी थी और एक अजीब-सी खुशी भी। उस समय अच्छे-बुरे की इतनी समझ ही कहां होती है। हमारे आसपास का माहौल भी ऐसा ही था। मेरी ममेरी-मौसेरी बहनों की शादी हो चुकी थी। उनकी जोड़ी देखकर मैंने भी अपने घर-संसार के ख्वाब बुने थे। मई, 1998 में मेरा निकाह हो गया। रस्में चल रही थीं, मेहमानों की भीड़, लेकिन दिल में डर था। “ससुराल कैसा होगा?, सास कैसी मिलेगी?” अपनी मौसेरी बहनों से उनकी सास के बारे में सुना था। तभी शौहर की तरफ के एक रिश्तेदार की आवाज कानों में पड़ी- “बगलवालों के यहां शादी में फ्रिज मिला है। इन लोगों ने नहीं दिया…” मेरे मामा खुद्दार किस्म के इंसान थे, हाजिरजवाब भी। उन्होंने तुरंत कहा- “अपनी बिटिया ही आपको सौंप दी, फिर हम कितना भी सोना तौले कम ही रहेगा।” ये सब बातें मेरे सामने हुईं। पढ़ाई सिर्फ पांचवीं तक हुई थी, उम्र भी कच्ची थी। बस इतना समझ आया कि दहेज की बात हो रही। मैं ससुराल आ गई। इसके बाद से जिंदगी बदलनी शुरू हो गई। आए दिन सास-ननद दहेज के लिए ताने देतीं। कहतीं कि मेरे बाप गरीब हैं, मैं खानदान के लायक नहीं हूं। एक दिन मैंने अपने शौहर से कहा। उनका व्यवहार अच्छा था। वे मजाक में बोले- “तुम्हारे अब्बू ने कुछ दिया होता तो ताने नहीं मिलते।” मुझे ये बात बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। वो समझ गए कि मैं गुस्से में बोल रही हूं। उन्होंने कहा- “सुन लिया करो, कुछ दिन की बात है। वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा।” मैं चुपचाप सब सहती गई, लेकिन वक्त के साथ कुछ ठीक नहीं हुआ। बद से बदतर होता जा रहा था। शौहर को छोड़कर ससुराल में हर कोई ताने देता था। एक दिन सुबह मैं सास को चाय देने गई। वो मुंह बनाकर ननद से बोलीं- “इसी में कोई कमी है।” मैंने सुन लिया। हिम्मत करके पूछा- “क्या कमी है अम्मी?”
सास ने सीधे कहा- “तुम बांझ तो नहीं हो…।” मैं सन्न रह गई, मेरी आंख में आंसू आ गए। बिना जवाब दिए किचन में आ गई। शादी को सिर्फ आठ महीने हुए थे और ये ताने भी शुरू हो गए थे। तंग आकर मैं मायके चली आई। हसबैंड मुझे वहां छोड़कर चले गए। एक महीने बीत गया, ससुराल से कोई हाल पूछने नहीं आया। मेरे घरवाले घबरा गए। जवान लड़की शादी के आठ महीने बाद ही मायके लौट आई थी। इसी दौरान मेरी तबीयत अजीब रहने लगी, उल्टियां आम हो गईं। मैं पेट से थी। मेरे घरवाले खुश थे और मैं भी। मेरे शौहर मुझे मायके से ले गए, वो भी खुश थे। मेरी डिलीवरी घर पर ही हुई। सास लगातार दुआ कर रही थीं कि लड़का ही हो। जब मुझे लड़की हुई तो सास ने मुंह बना लिया। मैं बेसुध हो चुकी थी। सास की कर्कश आवाज में पड़ी- “ये क्या पैदा कर दिया रेहाना?” सास की बातें चुभ रही थीं। मैंने धीरे से आंखें खोलीं, बोली- “अम्मी, बच्चे तो अल्लाह की नेमत हैं। लड़की हो या लड़का अपना ही तो खून है।” सास उठीं और बाहर चली गईं। मेरे शौहर फिर भी उदास थे। शाम को वो मेरे पास आए। मुझे और बच्ची को देखा, फिर बोले- “कोई बात नहीं, अगली बार लड़का होगा।” उनकी आवाज में वो उत्साह नहीं था, जो शादी के बाद वाले दिनों में होता था। मैंने पहली बेटी का नाम आयशा रखा। घर में बेटी की किलकारियां गूंजती तो सास के ताने शुरू हो जाते। जैसे-तैसे वक्त बीतता गया। मैं फिर से मां बनने वाली थी। खुशी के साथ-साथ डर भी था। सास और शौहर कहते- “इस बार लड़का ही होना चाहिए।” बातें कड़वी थीं। मैं मासूमियत से कह देती- “अम्मी दुआ करें, लड़का ही होगा।” नवंबर, 1999 में दोबारा बेटी हुई। डिलीवरी रूम से बाहर आते ही सास बोली- “फिर लड़की… तेरी कोख में क्या जहर भरा है? दो-दो लड़कियां…” फिर मेरे शौहर को देखकर कहा- “देख अपनी बीवी को… ये खानदान बर्बाद कर देगी।” गुस्से में शौहर की आंखें लाल थीं। मैंने उनसे कहा- “ये अल्लाह की मर्जी है। हमें खुश होना चाहिए।” वो बोले- “तुम बांझ नहीं हो, लेकिन खानदान को बांझ बना दोगी।” इस बात ने दिल में छुरा-सा घोंप दिया। मैं रो पड़ी। ये सिर्फ शुरुआत थी। इसके बाद का वक्त ऐसा था जैसे खुदा ने किस्मत में रोना ही लिख दिया हो। मुझे तीन लड़कियां और हुईं, कुल पांच लड़कियां। कहना नहीं चाहिए, लेकिन अब मुझे भी बच्चियां बोझ लगने लगी थीं। बार-बार डिलीवरी से पूरा शरीर खोखला हो चुका था। घर में मेरी मौजूदगी जैसे किसी सजा की तरह हो गई थी। अब ताने सिर्फ जुबान तक नहीं थे। शौहर का हाथ उठाना आम हो गया था। छोटी-छोटी बात पर मुझे या बच्चियों को मारने लगते थे। पूरे घर का खाना मैं ही बनाती थी और मेरे लिए ही खाना कम पड़ जाता था। बेटियां खाने बैठती तो सास मुंह बनाकर बैठी रहतीं। मैं चुप रहती, क्योंकि जवाब देने का मतलब था मार खाना। शौहर ने बेटियों का खर्चा देना बंद कर दिया। पढ़ाई बंद होने की नौबत आ गई। मैं सिलाई करके पैसे जमा करने लगी। जब रात में सब सो जाते, तब घर का पूरा काम करने के बाद सिलाई करती। उसी से बेटियों को पढ़ाती थी। शरीर में खून की कमी हो गई। वजन सिर्फ 35 किलो रह गया। फिर पता चला मैं मां बनने वाली हूं, छठी बार। ये सुनकर डर लगने लगा। शरीर पहले ही जवाब दे चुका था। चलते-चलते चक्कर आ जाते। घर में किसी को फर्क नहीं पड़ता था। एक दिन मेरे शौहर बोले- “अस्पताल चलना होगा।” मैंने वजह पूछी तो कहने लगे- “बस चलना है।” मैंने मना कर दिया। मैं जानती थी वो टेस्ट कराना चाह रहे थे कि इस बार पेट में लड़की है या लड़का। लड़की होगी तो गिरा देंगे। मेरे मना करने पर वो गुस्से में कहीं चले गए। थोड़ी देर बाद लौटकर फिर पूछा- “आखिरी बार पूछ रहा हूं, चलेगी या नहीं।” मैं भी गुस्से में थी। बिना उनकी तरफ देखे मना कर दिया। वो बाहर गए और फिर अंदर आए। हाथ में एक बोतल थी। उन्होंने फिर पूछा- “ नहीं चलेगी…” मैंने न में सिर हिला दिया। अगले ही पल उन्होंने बोतल खोली और मेरे पेट पर डाल दी। एक सेकेंड में ऐसा दर्द उठा कि मेरी चीख भी नहीं निकली। ऐसा लगा जैसे शरीर आग बन गया हो। उन्होंने मेरे प्राइवेट पार्ट पर तेजाब डाल दिया था। मांस गलने लगा था, घाव हो गए, खून निकलने लगा। मैं बेहोश हो गई। बेतहाशा दर्द की वजह से मुझे दोबारा होश आया। ऐसा दर्द कि दुआ कर रही थी कि अभी जान निकल जाए, लेकिन मैं मरी नहीं। अल्लाह जाने कैसी इंसान हैं, मेरी सास-ननद को फर्क ही नहीं पड़ रहा था। दो-तीन दिन मैं उसी हालत में पड़ी रही। कोई डॉक्टर नहीं, कोई मरहम नहीं। बस एक कपड़ा डाल दिया गया मेरे ऊपर। बड़ी बेटी आयशा ने किसी तरह मेरे अब्बू को खबर दी। अब्बू और भाई आए, मुझे उठाकर थाने ले गए। केस लिखवाया और घर आ गए। शुरू में उन्हें लगा कि लड़ाई-झगड़े में कोई चोट लग गई होगी। जब घर में अम्मी ने कपड़े बदलवाए तो मेरी हालत देखकर उन्हें चक्कर आने लगे। तुरंत अस्पताल ले गए। प्राइवेट अस्पताल वालों ने कहा- पांच लाख लगेंगे। हमारे पास इतने पैसे नहीं थे। हम सरकारी अस्पताल गए। वहां भी तब इलाज शुरू हुआ, जब मीडिया ने मामला उठाया। रोज ड्रेसिंग होती, शरीर से मांस के लोथड़े निकाले जाते। डॉक्टर बोले- आधा किलो से ज्यादा मांस निकालना पड़ा। उस वक्त मैं ढाई महीने की प्रेग्नेंट थी। डॉक्टर बोले अबॉर्शन करना पड़ेगा। मैंने साफ मना कर दिया, कहा- “मर भले जाऊं, बच्चा नहीं गिराऊंगी।” पेट और वो हिस्सा इतना जल गया था कि अबॉर्शन हो भी नहीं पाया। धीरे-धीरे महीने पूरे होते गए। मेरी हालत भी ठीक होती गई। पेट में बच्चे की हलचल मुझे जिंदा रख रही थी। डिलीवरी का समय आया। इस बार बेटा हुआ। शौहर जेल में थे। बेटा न होने की वजह से मुझे अपंग बनाया गया। जब बेटा हुआ तो देख भी नहीं पाए। मेरी खुशी सिर्फ बाहर तक थी, अंदर कुछ भी बदला नहीं था। जब भी शीशे के सामने खड़ी होती, खुद से नजर नहीं मिला पाती। मुझे अपना शरीर अजनबी लगता था। ऐसा लगता जैसे अब मैं औरत नहीं रही। कमर के नीचे के हिस्से सिकुड़ चुके थे। जिस्म पर जहां तेजाब रुका, वहां गड्ढा हो चुका था। अभी भी कई कॉम्प्लिकेशन हैं। उस समय तो नींद तक नहीं आती थी। आंख बंद करते ही वो पल सामने आ जाता था। वही जलन, वही चीख। मेरा जिस्म जिंदा था, रूह तो कब की मर चुकी थी। हर सुबह लगता था कि आज क्यों जगी हूं। सांस लेना बोझ लगने लगा था। एक दिन मैं बिना किसी को बताए घर से निकल गई। पैरों में जैसे जान नहीं थी, फिर भी चलती रही। सामने पटरी थी। दूर से ट्रेन की आवाज आ रही थी। आवाज तेज होती जा रही थी। दिल जोर से धड़क रहा था, लेकिन डर नहीं लग रहा था। मौत आसान लग रही थी। मेरी आंखें बंद थीं। तभी बेटियों का चेहरा आंखों के आगे आ गया। वो चेहरे जो मुझे ढूंढते थे। जो पूछते थे- “अम्मी… आज ठीक हो?” मैंने सोचा अगर मैं मर गई, तो उन्हें कौन देखेगा। उनके साथ भी वही हुआ जो मेरे साथ हुआ तो उन्हें कौन बचाएगा। मेरे पैर कांप गए। मैं पटरी से हट गई। कुछ देर बाद ट्रेन सामने से गुजर गई। मैं वहीं बैठ गई और फूट-फूटकर रोने लगी। रेल की पटरियों से जिंदगी के मोड़ पे यू-टर्न लिया। उसी दिन मैंने तय किया कि अब मैं सिर्फ अपने लिए नहीं, अपनी बेटियों के लिए जियूंगी। औरत होने की वजह से जो जख्म मुझे मिले, वो मेरी बेटियों को नहीं मिलने चाहिए। इसके बाद मैं एसिड सर्वाइवर्स के लिए काम करने वाले NGO शीरोज (Sheros) से जुड़ी। वहां मैंने अपने जैसी और भी कई औरतें देखीं। किसी का चेहरा झुलस चुका था, किसी के हाथ, किसी की आंख नहीं थी। उन्हें देखकर पहली बार मुझे लगा कि मैं अभी भी जिंदा हूं। मैं चल सकती हूं, काम कर सकती हूं, अपने बच्चों के लिए खड़ी हो सकती हूं। अपना दुख दूसरों में देखा तो हिम्मत आई। सोचा अब खुद से कुछ करूंगी। आज लखनऊ में शीरोज के एक कैफे में काम करती हूं। लोगों अब भी ताने मारते हैं कि जींस पहनती है। किसी ने अफवाह उड़ाई, मैं बार में डांस करती हूं। मेरे पास अब हारने को कुछ नहीं था। जिंदगी में इतना कुछ देखा है कि डर नहीं लगता। अपने काम के दम पर मैं आगे बढ़ चुकी हूं। अपने दम पर तीन बेटियों की शादी कर चुकी हूं। शीरोज के साथ दूसरी औरतों के लिए भी काम करती हूं। ताकि कोई और रेहाना उस रास्ते पर न पहुंचे, जहां से लौटना मुश्किल हो जाता है। मेरी किस्मत है कि उस वक्त मुझे बेटियों का ख्याल आ गया। जिन बेटियों के लिए मेरी जान लेने की कोशिश की गई, आज उन्हीं बेटियों को देखकर मुझे जीने का हौसला मिलता है। शौहर को छह साल की सजा हुई। जेल से छूटने के बाद हमारे साथ ही रहते हैं। मजबूरी है क्योंकि दुनियावाले अकेली औरत की बेटियों को अच्छा नहीं समझते, उनसे शादी नहीं करते। मुझे मारने की कोशिश करने वाला चेहरा सुबह-शाम मेरे सामने रहता है। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ग्राफिक्स- सौरभ कुमार *** कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ———————————————————– सीरीज की ये स्टोरीज भी पढ़ें… टीवी डिबेट देख कॉर्पोरेट जॉब छोड़ी, घरवाले बोले- पागल हो गया; IIIT वाले ने बना डाली 10 करोड़ की कंपनी आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि जिंदगी कब और कैसे करवट बदलती है, पता ही नहीं चलता। करीब 14 साल सॉफ्टवेयर इंजीनियर के तौर पर अलग-अलग कंपनियों में काम किया। इस दौरान यूरोप, अमेरिका और साउथ ईस्ट एशिया के कई शहरों में रहा। पूरी स्टोरी पढ़ें… पापा बोले- ड्रॉइंग छोड़ या घर; खाली जेब घर से निकला, अब हर महीने 80 हजार कमाता हूं जिंदगी जितनी आसान दिखती है, उतनी है नहीं। वो अपने साथ बहुत से उतार-चढ़ाव लेकर चलती है। इस सफर में कुछ लोग हार जाते हैं, कुछ अपना रास्ता बना लेते हैं। ऐसी ही कहानी मेरी भी है। बचपन से मुझे ड्रॉइंग का शौक था। ये शौक मेरी बहन की देन है। 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