इंजीनियरिंग की पढ़ाई, फिल्मी लव स्टोरी और सीएम की गद्दी:दिग्गजों को पछाड़ बने सपा के मुखिया, ‘टीपू’ से अखिलेश बनने की पूरी कहानी

राजनीति में कई चेहरे आते हैं और खो जाते हैं। लेकिन, कुछ चेहरे वक्त के साथ खुद को इस तरह तराश लेते हैं कि उनका जिक्र एक मिसाल बन जाता है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आज अपना 52वां जन्मदिन मना रहे हैं। अखिलेश पहली बार 2012 में यूपी के सीएम बने। लेकिन, 2017 की चुनावी हार और उसके बाद 2018 में पूर्व मुख्यमंत्री के हैसियत से मिले सरकारी आवास से विदाई के वक्त की यादें उनको आज भी कचोटती हैं। घर खाली किया तो उसे गंगाजल से धुलवाया गया। कई बार वे सार्वजनिक तौर पर अपनी इस पीड़ा को जाहिर करते हुए कह चुके हैं कि क्या मैं अपवित्र था? अखिलेश यादव की राजनीतिक जिंदगी सैफई के खेतों से ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी तक, यूपी के सिंहासन से दिल्ली की संसद तक किस तरह आगे बढ़ी। पढ़िए ये रिपोर्ट… अखिलेश यादव का जन्म 1 जुलाई, 1973 को इटावा जिले के सैफई गांव में हुआ। पिता मुलायम सिंह यादव, खुद एक तेजतर्रार नेता थे और राजनीति के शिखर पर विराजमान थे। लेकिन बेटे अखिलेश की परवरिश सिर्फ सत्ता के गलियारों में नहीं, मिलिट्री स्कूल और इंजीनियरिंग लैब में भी हुई। सैफई से पढ़ाई की शुरुआत करने के बाद वो राजस्थान के धौलपुर मिलिट्री स्कूल गए। इसके बाद उन्होंने कर्नाटक के मैसूर के एक कॉलेज से एनवायरन्मेंटल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन किया। फिर हायर एजुकेशन के लिए ऑस्ट्रेलिया की सिडनी यूनिवर्सिटी गए और मास्टर्स की डिग्री हासिल की। यानी राजनीति में कदम रखने से पहले अखिलेश एक शिक्षित टेक्नोक्रैट की छवि गढ़ चुके थे। जब दिल ने कहा ‘डिंपल’
उनकी निजी जिंदगी भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं। डिंपल यादव से उनकी पहली मुलाकात एक कॉमन फ्रेंड के जरिए हुई। जब पहली बार दोनों मिले, तब अखिलेश इंजीनियरिंग के छात्र थे और डिंपल स्कूल में थीं। दोस्ती गहरी हुई, प्यार पनपा और फिर आया वो वक्त जब ऑस्ट्रेलिया से लौटने के बाद घरवालों ने शादी के लिए दबाव बनाना शुरू किया। अखिलेश ने घर में डिंपल के लिए बात की, लेकिन मुलायम सिंह नाराज हो गए। जिद ठानी तो टीपू नहीं झुका, बल्कि पिता को मना लिया। 24 नवंबर, 1999 को अखिलेश-डिंपल शादी के बंधन में बंधे। कहते हैं, इस शादी को कराने में अमर सिंह ने अहम किरदार निभाया। टीपू अखिलेश के बचपन का नाम है, जिसे सैफई के प्रधान ने रखा था। जब मेरे बारे में लोगों को पता चला
एक इंटरव्यू में अखिलेश बताते हैं कि सिडनी में एक फैमिली के साथ मैं पेइंग गेस्ट के रूप में रहता था। पति ऑस्ट्रेलियन थे, पत्नी फिजियन। वे अमिताभ बच्चन की शख्सियत से वाकिफ थे। जब अमिताभ बच्चन सिडनी आए, तो मैं उनसे मिलने गया था। वहां के एक अखबार ने मेरी एक तस्वीर छाप दी जिसमें अमर अंकल (अमर सिंह), अमिताभ अंकल (अमिताभ बच्चन) और मैं था। उस दिन से सब जान गए कि मैं कितने बड़े लोगों को जानता हूं। 27 साल की उम्र में बने सांसद
मास्टर डिग्री लेकर लौटे अखिलेश ने राजनीति को बतौर पेशा नहीं, बल्कि जुनून के तौर पर चुना। साल 2000 में कन्नौज लोकसभा सीट से उपचुनाव जीतकर संसद पहुंचे। वहां उन्होंने खाद्य, नागरिक आपूर्ति और सार्वजनिक वितरण समिति में सदस्य के रूप में काम किया। इसके बाद 2004 और 2009 में भी कन्नौज से सांसद बने। सबसे कम उम्र के सीएम बने
साल 2012 में अखिलेश ने सपा की चुनावी कमान संभाली। उस वक्त पार्टी की कमान मुलायम सिंह यादव के हाथ में थी, लेकिन रणनीति अखिलेश की थी। वे पार्टी के यूथ के अध्यक्ष थे। उन्हें जिम्मेदारी मिली युवाओं को जोड़ने की, साइकिल को फिर से रफ्तार देने की। सपा को पूर्ण बहुमत मिला। सबको उम्मीद थी कि नेताजी फिर सीएम बनेंगे, लेकिन पार्टी ने सबको चौंकाते हुए 38 साल के अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना दिया। वह उत्तर प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने। विरासत में मिली राजनीति
अखिलेश यादव को सियासत विरासत में मिली। पिता मुलायम सिंह यादव प्रदेश के 3 बार मुख्यमंत्री रहे। मां मालती देवी कुशल गृहिणी थीं। मुलायम सिंह ने 1992 में सपा की स्थापना की और उत्तर प्रदेश की राजनीति में यादव-मुस्लिम के साथ अन्य पिछड़े वर्गों के बीच मजबूत आधार बनाया। अखिलेश को राजनीति का ककहरा खुद मुलायम सिंह ने सिखाया। 2000 में उपचुनाव से एंट्री कराने के बाद मुलायम सिंह ने अखिलेश को 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में टिकट दिया, जिसमें उन्होंने जीत हासिल की। 2012 में साइकिल यात्रा बनी टर्निंग पॉइंट
अखिलेश यादव ने 2012 में प्रदेश के सभी जिलों में साइकिल से यात्रा की, जो यूपी की सियासत का टर्निंग पॉइंट भी बनी। मुलायम सिंह ने अखिलेश यादव को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी। 2012 के चुनाव में टिकटों के बंटवारे में अखिलेश यादव ने अहम भूमिका निभाई। माफियाओं को दूर रखा और मायावती सरकार के कुशासन के खिलाफ जनता को एकजुट किया। उनकी रणनीति में मुफ्त शिक्षा, लैपटॉप, टैबलेट और बेरोजगारी भत्ता जैसे वादे शामिल थे। ये सभी युवाओं और ग्रामीण मतदाताओं को आकर्षित करने में सफल रहे। अखिलेश ने टिकट वितरण में युवा और अपने समर्थकों को प्राथमिकता दी। इसका फायदा यह हुआ कि वह 224 सीटों के साथ सत्ता में आ गए। चुनौतीपूर्ण रही सीएम की कुर्सी
चुनाव जीतने के बाद मुलायम सिंह ने अपने बेटे को सीएम की कुर्सी सौंप दी। लेकिन, पार्टी में शिवपाल सिंह यादव, राम गोपाल यादव, आजम खान के साथ खुद मुलायम सिंह के रहते हुए यह पद अखिलेश के लिए काफी चुनौतीपूर्ण रहा। वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा कहते हैं- सही मायनों में अखिलेश यादव साढ़े तीन साल सीएम रहे। उनका साढ़े तीन साल का कार्यकाल प्रदेश के विकास के मामले में कई नामचीन मुख्यमंत्री को पीछे छोड़ने वाला रहा। साढ़े तीन साल का कार्यकाल इसलिए, क्योंकि पहले डेढ़ साल वह ऐसे चक्रव्यूह में थे, जिसकी वजह से खुद फैसले नहीं ले पा रहे थे। इस दौर में अखिलेश यादव को चुनौतियां परिवार से ज्यादा उन लोगों से मिलीं, जो नेताजी मुलायम सिंह यादव के समकक्ष थे और अखिलेश यादव को भतीजा या बच्चा समझते थे। अखिलेश को डिप्टी सीएम बनाना चाहते थे शिवपाल
योगेश मिश्रा बताते हैं- जहां तक परिवार में विवाद की बात है, तो शिवपाल यादव चाहते थे कि 2012 में अखिलेश को डिप्टी सीएम बनाया जाए। मुलायम सिंह खुद सीएम बनें। 2014 के चुनाव के बाद अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया जाए। अखिलेश यादव को लगा कि शिवपाल उनका विरोध कर रहे हैं। मुलायम ने शिवपाल के मशविरे को नजरअंदाज करते हुए अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया और शिवपाल को महत्वपूर्ण मंत्रालय दिए। लेकिन, दोनों के बीच नीतियों और नियंत्रण को लेकर मतभेद बढ़े। 2016-17 में यह टकराव खुलकर सामने आया। जब अखिलेश ने शिवपाल को मंत्रिमंडल से हटाया और पार्टी में अपनी पकड़ मजबूत की। उस दौर में कई नाटकीय घटनाक्रम भी हुए। जिसमें पार्टी कार्यालय में मंच पर धक्का-मुक्की की घटना भी शामिल थी। सत्ता विरोधी रुझान और आपसी विवाद से गई थी कुर्सी
योगेश मिश्रा बताते हैं- 2017 के चुनाव से पहले सपा में विवाद चरम पर था। अखिलेश यादव को भी लग गया था कि सत्ता में वापसी मुश्किल है। यही वजह थी कि उस चुनाव में अखिलेश ने कांग्रेस के साथ समझौता किया। लेकिन, इस समझौते का फायदा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि कांग्रेस 2004 से 2014 तक सत्ता में थी। वह सत्ता विरोधी लहर की वजह से सत्ता से बाहर हुई थी। भाजपा ने इस लहर को 2017 में कम नहीं होने दिया, जिसका डबल नुकसान सपा काे हुआ। फेल हो गई थी मायावती के साथ जाने की रणनीति
अखिलेश यादव ने 2017 के चुनाव में मिली हार के बाद 2019 के चुनाव में मायावती के साथ समझौता किया। लेकिन, यह गठबंधन भी नाकाम साबित हुआ। क्योंकि, दोनों पार्टी के कार्यकर्ताओं के दिल आपस में नहीं मिले। सपा का वोट बसपा की ओर से तो ट्रांसफर हो गया, लेकिन मायावती अपना वोट सपा की ओर ट्रांसफर कराने में नाकाम रहीं। नतीजा यह हुआ कि बसपा को 10 सीटें मिलीं और सपा 5 सीटों पर सिमट कर रह गई। छोटे दलों के साथ 2022 में चुनाव में उतरे
योगेश मिश्रा बताते हैं- 2022 के चुनाव में अखिलेश यादव छोटे-छोटे दलों के साथ समझौता कर मैदान में उतरे। लेकिन, टिकट बंटवारे में हुई गलती और भाजपा के आक्रामक प्रचार की वजह से सत्ता में नहीं आ सके। अखिलेश की सीटें 47 से बढ़कर 111 तक पहुंच गईं, लेकिन पार्टी सत्ता से काफी दूर रही। सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव जीतने वाले दल रालोद और सुभासपा ने भी सपा का साथ छोड़ दिया और भाजपा के साथ सरकार में शामिल हो गए। पीडीए की रणनीति ने बदल दी अखिलेश की किस्मत
अखिलेश यादव 2022 के चुनाव के नतीजे देखने के बाद यह समझ चुके थे कि अब चुनाव आमने-सामने का ही होगा। ऐसे में केवल मुस्लिम और यादव वोटों के भरोसे कामयाबी मुश्किल है। ऐसे में उन्होंने पीडीए फॉर्मूले पर काम शुरू कर दिया। पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक। इसका फायदा अखिलेश को 2024 के चुनाव में हुआ जब यूपी में सपा को कोई दहाई के अंक में भी सीटें देने को नहीं तैयार था, उस समय अखिलेश ने 37 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया। अखिलेश ने इस चुनाव में भी कांग्रेस के साथ समझौता किया। योगेश मिश्रा बताते हैं- इस चुनाव में कांग्रेस और सपा दोनों को फायदा हुआ। सपा ने 2022 में 2.93 करोड़ वोट हासिल किए थे, वो 2024 में कम सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी बढ़कर 2.94 करोड़ हो गए। वहीं, कांग्रेस को जिस 2022 के चुनाव में सिर्फ 14 लाख वोट मिले थे, वो बढ़कर 86 लाख हो गए। कुल मिलाकर अखिलेश ने अपने हाथ में बागडोर संभालने के बाद पार्टी को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां मुलायम सिंह भी नहीं पहुंचा सके थे। मुलायम सिंह जब पार्टी के सुप्रीमो थे, तब 2004 के चुनाव में पार्टी को लोकसभा की अधिकतम 35 सीटें ही हासिल हुई थीं। वहीं अखिलेश ने 37 सीटें हासिल कर इस रिकॉर्ड को तोड़ दिया। ———————— ये खबर भी पढ़ें… यूपी सरकार सख्त- बनकर रहेगा बांके बिहारी कॉरिडोर, गोस्वामी परिवार बोला- सारा पैसा ले लो, हमारे ठाकुरजी हमें दे दो मथुरा के वृंदावन में बांके बिहारी कॉरिडोर बनाने का गोस्वामी परिवार विरोध कर रहा है। धर्मार्थ कार्य विभाग का कहना है कि विरोध की असल वजह सिर्फ गोस्वामी परिवारों के अधिकार का झगड़ा नहीं है। झगड़ा गोस्वामी परिवारों और स्वामी हरिदास ट्रस्ट के बीच हर महीने लाखों रुपए के चढ़ावे की रकम का भी है। कॉरिडोर बनने से बांके बिहारी मंदिर में आने वाले चढ़ावे की राशि पर बड़ा अधिकार ट्रस्ट का होगा। पढ़ें पूरी खबर